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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
मैं अवश्य स्वस्थ हो जाऊँगी। उसने तुरन्त माताजी को नयी धोती पहनाकर उनकी पुरानी धोती लाकर मुझे दी। मैंने उस धोती को पहना और शाम ३ बजे तक मुझे स्वस्थता महसूस होने लगी, तभी मैं स्वयं अपने पैरों से चलकर पूज्य माताजी के पास पहुंची और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया।
मैं भगवान् महावीर से प्रार्थना करती हूँ कि माताजी का स्वास्थ्य अच्छा रहे, वे बड़े-बड़े धार्मिक कार्यों को करती रहें तथा दीर्घायु पाकर स्व और पर का कल्याण करती रहें। पुनः माताजी को वंदामि।
जैन समाज की अचल सम्पत्ति की संरक्षिका
- ब्र० कु० प्रभा पाटनी [संघस्थ आचार्य श्री विमलसागरजी]
"नारी सबला है अबला नहीं' यह करके दिखाने वाली रत्न बाल ब्रह्मचारिणी आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमती हैं, जिनके अदम्य साहस ने अनेक कष्टों को सहते हुए समाज व देश से निर्भीक हो जैन समाज की जिस अचल सम्पत्ति की रक्षा की है- वह है, साहित्य सृजन व मन्दिर निर्माण जम्बूद्वीप आदि । ऐसी महान् ज्ञान व तपोवृद्ध माताजी के जीवन में एक बार सभी के लिए दर्शन अत्यावश्यक हैं। मैंने दो बार दर्शन किये हैं- एक बार १५ दिन तक हस्तिनापुर में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दूसरी बार दो वर्ष पूर्व सिर्फ ४ घण्टे साथ रहे।
उनकी वाणी में ओज है। जीवन में धर्म संबल कैसे प्राप्त हो, साधु का मिलान कैसे हो, ऐसे उन्होंने मुझे अपने जीवन के कई अनुभव बताये व एक बात पर विशेष जोर दिया कि साधु व आर्यिका तो दूर-दूर होने के कारण आपस में मिल नहीं सकते हैं; अतः संघ में रहने वाले शिष्यों को (ब्रह्मचारी आदि को) अन्य संघों में आना-जाना चाहिये व कुशल-क्षेम के समाचार अर्थात् समाचार विधि को बनाये रखना चाहिये, जिससे आपस में वात्सल्य बना रहता है। हमने इस प्रकार कई बातें अनुभव की सीखीं। मैं पूज्य माताजी के द्वारा बतायी गयी समस्त बातों पर चलने का पूर्ण प्रयास करूँगी तथा वीर प्रभु से प्रार्थना करती हूँ कि युगों-युगों तक माताजी ज्ञान की लहरें देती रहें व हमारे बीच बनी रहें, शतायु हों तथा हम उनका अनुकरण कर सकें। अतः माताजी के चरण सरोज में शत-शत नमन।
कौन कहे नारी अबला ?
-ब्र० कु० रेवती दोशी-अकलूज (महाराष्ट्र) [आर्यिका स्व० अजितमती माताजी की शिष्या]
जब सृष्टि अनादिनिधन है, तब वस्तु व्यवस्था भी अनादिनिधन है और उसे यथार्थ रूप से कहने वाला जिनधर्म भी अनादिनिधन है। लेकिन भरत ऐरावत क्षेत्र में सदैव काल परिवर्तन होता रहता है। इस दृष्टि से देखा जाय तो चतुर्थ काल में इस क्षेत्र में जिनधर्म के आद्य प्रवर्तक भगवान् ऋषभदेव हुए। भगवान को जब केवलज्ञान प्राप्त हुआ और देवों ने आकर समवशरण निर्माण किया तभी से प्रत्येक तीर्थंकर के समवशरण में कोई न कोई आर्यिका, गणिनी होकर धर्मप्रभावना करती आ रही है। वर्तमान युग में उस परंपरा का प्रतीक हम पूज्य गणिनी आर्यिका १०५ श्री ज्ञानमतीजी के रूप में देख रहे हैं। जब-जब मैं अंतर्मुखी होकर सोचती हूँ, तब-तब मुझे ऐसा लगता है, मानो आज भी चतुर्थकाल ही चल रहा है।
और मैं क्यों न ऐसा मानूं कि माताजी एक स्त्री होकर इतना कार्य करके दिखाती हैं। जम्बूद्वीप रचना जो दुनिया में बेजोड़ है। अष्टसहस्री जैसे कठिनतम न्याय ग्रंथ का गम्भीर चिंतनपूर्वक अनुवाद करने की क्षमता! सम्यग्ज्ञान जैसे दर्जेदार मासिक का चलना, जिसमें कि चारों अनुयोगों
लता है। अनेक शिविर लेकर धर्म संस्कार की नींव आने वाली प्रत्येक पीढ़ी के लिए डालना, विविध पूजा और विधान के लिए भक्तिपूर्ण काव्य निर्मिती/आर्यिकाओं का संघ संभालना/मैं पूछती हूँ ये सब जो देखेगा भला कौन ऐसा कहेगा कि नारी अबला होती है ?
आजकल समाज में पूजा विधि विधान जानने वाले पंडितवर्ग दिन पर दिन दुर्लभ होते जा रहे हैं। जहां पंडित हैं, उनके पुत्र यह काम सीखते नहीं। किंबहुना, आजकल पंडित होना अपमानास्पद लगता है और जो हैं या जिनके पुत्र पिताकी जगह पर मंदिर का काम करते हैं उन्हें विधि-विधान की जानकारी पूर्ण रूप से नहीं होती। यदि हमारा पंडितवर्ग पूजा के साथ-साथ चारों अनुयोगों का ज्ञान प्राप्त कर ले और पूजा के समय लोगों को प्रभावित करने के लिए उसका उपयोग करे तो पूजा केवल क्रियाकांड न होकर लोग, ... हमारी युवा पीढ़ी उसमें सम्मिलित हो जायेगी।
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