________________
गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
लेकिन इसके लिए यह आवश्यक है कि हमारी आवश्यक क्रियायें जैसे कि सकलीकरण,मंत्र साधना आदि, उनका आधुनिक विज्ञान के साथ मेल लगाकर हमें लोगों को बताना चाहिए। इसलिए हमारा पंडितवर्ग अच्छा जानकार चाहिए। इसलिए पंडित लोगों का शिविर भी माताजी लेती हैं। यह समाज के लिए महान् ऋण है। यह सब करने के लिए आदमी भविष्य का द्रष्टा होना चाहिये और माताजी निर्विवाद द्रष्टा हैं।
सन् १९९१ में जब जनवरी से अप्रैल तक बारामती में आचार्य श्री चारित्रचक्रवर्ती समाधिसम्राट् शांतिसागरजी महाराज की अंतिम शिष्या विदुषीरत्न चारित्रचंद्रिका १०५ आर्यिका श्री अजितमती माताजी की सल्लेखना चल रही थी तब ज्ञानमती माताजी ने एक श्राव्य कैसेट में क्षपक के लिए उत्कृष्ट संबोधन भरके पंडित प्रवीणचंद्र शास्त्री के हाथों बारामती में भिजवाया था और बार-बार पत्रों के माध्यम से क्षपक की क्षेम कुशलता पूछती थीं। शरीर से इतना दूर थी, अतः आ तो नहीं सकती थी, लेकिन उपलब्ध माध्यम से क्षपक के लिए कितनी सावधानता! सचमुच साधु तो वात्सल्य की मूरत ही होते हैं।
"परोपकाराय सतां विभूतयः" इस उक्ति के अनुसार हमारे त्यागियों का जीवन है। धन्य ही है आपकी गुणवत्ता, जो अखिल स्त्री समाज को ललामभूत है। ऐसी सिद्धांतवेत्ता जिनधर्म प्रभाविका गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी के चरणारविंद में हमारा शत शत वंदन और प्रतिदिन आपके लिए रत्नत्रय धर्मसहित दीर्घायु और आरोग्य की मंगलकामना ।
"संस्कारों की जन्मदात्री"
- ब्र० धर्मेन्द्र कुमार जैन वर्णी गुरुकुल, जबलपुर (म०प्र०)
मैं कक्षा तीन में पढ़ता था तब मेरे गाँव में आचार्य धर्मसागरजी के संघस्थ क्षुल्लक श्री सूर्यसागरजी की प्रेरणा से बन्द पाठशाला पुनः प्रारम्भ हुई। उस समय अध्ययन के लिए पूज्य माताजी द्वारा रचित बाल विकास भाग-१ से ४ ही निश्चित किये गये। उक्त पुस्तकों की कुछ प्रतियाँ डाक द्वारा दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर से मँगाई गईं। मेरे हाथ में पहले बाल विकास भाग-१ की प्रति आई। उसका प्रथम पृष्ठ खोला, परोक्ष रूप से पूज्य माता जी के चित्ररूप में दर्शन किये। उस चित्र में इतना आकर्षण था कि मन में प्रत्यक्ष दर्शन के भाव हुए, किन्तु बाल्यावस्था माता-पिता के अधीन होती है; अतः उस समय प्रत्यक्ष दर्शन असंभव था। नित्यप्रति पाठशाला जाता, उस चित्र के दर्शन करता, लेकिन प्रत्यक्ष दर्शन के बिना संतुष्टि नहीं होती। दर्शन की भावना बलवती होती गई, समय निकट आया। २२ जून १९८७ की बात है, हायर सैकेण्डरी का परीक्षा परिणाम आते ही पू० माताजी के प्रत्यक्ष दर्शन एवं जैन दर्शन के अध्ययन की भावना को फलीभूत करने हेतु २४ जून १९८७ को तीर्थंकर एवं चक्रवर्तियों की जन्मभूमि हस्तिनापुर को जाने के लिए माता-पिता से आग्रह किया, परन्तु अस्वीकृति प्राप्त हुई, तथापि येन केन प्रकारेण जालसाजीपूर्वक निकल गया; फलतः दूरी तय कर माताजी के चरणों में जा पहुँचा। एक ओर माताजी के दर्शन , दूसरी ओर महापुरुषों की जन्मभूमि के दर्शन । अहो भाग्य! अपने को धन्य समझा।
वहाँ पहुँचने के ठीक ७ दिन बाद पूज्य माताजी ने मेरे अध्ययन की व्यवस्था करवाई। व्याकरण की शुरूआत तो स्वयं माताजी ने मंगलाचरण कराकर की। व्याकरण एवं संस्कृत पढ़ने की उत्कण्ठा माताजी के सानिध्य से ही हुई। कातन्त्र व्याकरण सन्धि प्रकरण तो वहीं पढ़ा। पूज्य माताजी ने अपने जीवन में ज्ञानार्जन के क्षेत्र में कई लोगों को तैयार एवं प्रेरित किया। पूज्य माताजी को मैं संस्कार जन्मदात्री के रूप में मानता हूँ; क्योंकि यज्ञोपवीत संस्कार वहीं से हुआ।
सात्विक जीवन के साथ धर्म और संस्कृति की रक्षा एवं गुरु के प्रति समर्पण भाव ये दो शिक्षाएँ मुख्य रूप से आपके सान्निध्य से प्राप्त हुईं। पूज्य माताजी द्वारा दिये गये संस्कारों का विस्मरण मैं कभी नहीं कर सकता हूँ। उनके श्री चरणों में मैं अपनी विनयांजलि समर्पित करता हूँ।
Jain Educationa international
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org