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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ ज्योति-स्तम्भ -ब्र० कमलाबाई जैन "नारी गुणवती धत्ते स्त्रीसृष्टेरग्रिमं पदम्" उक्ति को चरितार्थ करने वाली महिमामयी साध्वी गणिनी आर्यिकारत्न श्री १०५ ज्ञानमती माताजी के अभिवंदन ग्रंथ के प्रकाशन की योजना को सुनकर चित्तप्रमुदित हुआ। आर्यिका श्री ज्ञानमतीजी का समाराधित भव्य जीवन प्रत्येक नारी के लिए एक उज्ज्वल निदर्शन है। वस्तुतः अभिवंदन ग्रंथ योजना परम स्तुत्य व पुनीत कर्त्तव्य है। वह भारत वसुन्धरा धन्य है, जहाँ की नारियाँ अपने शील, त्याग धर्माचरण के द्वारा पुरुषों के समान ही साफल्य का स्वागत करती हैं। ऐसी ही पूजनीया, अर्चनीया, वन्दनीया, अनुपम ज्योति के समान जग को प्रकाशित और पवित्र करने वाली आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की ओर ध्यान-बरबस ही खिंच जाता है। जिन्होंने बालसुलभ क्रीड़ाओं के साथ ही अपनी माँ १०५ आर्यिका श्री रत्नमतीजी के दहेज में प्राप्त “पद्मनंदि पंचविंशतिका" ग्रन्थ का स्वाध्याय अपनी १२-१३ वर्ष की उम्र में ही कर लिया था। जिससे उनके हृदय में वैराग्य के दृढ़ संस्कार समा गये और उन्होंने निज मन में गृहस्थ बन्धन अस्वीकार करने का संकल्प कर लिया। सन् १९५३ में आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज ने श्रीमहावीरजी अतिशय क्षेत्र पर क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान की। तत्पश्चात् १९५६ में आपकी उत्कृष्ट वैराग्य-भावना तथा अलौकिक ज्ञान को देखकर आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज ने आर्यिका दीक्षा प्रदान कर लघु वयस्का शिष्या को अति सूक्ष्म संबोधन भी प्रदान किया--"ज्ञानमतीजी! मैंने जो तुम्हारा नाम रखा है उसका सदैव ध्यान रखना।" ____ यदि आज "यथा नाम तथा गुण" कहावत पूर्णतः चरितार्थ हुई है तो पूजनीया माताजी में ही। आपने क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण करते ही जैन धर्म के गूढ़तम ग्रन्थों का अध्ययन करना तथा समाज को सुदृढ़ मार्ग प्रशस्त करना अपने जीवन का प्रमुख लक्ष्य बना लिया। अत्यल्प समय में ही सुसंस्कृतज्ञा होकर आपने अन्य भाषाओं पर भी पाण्डित्य प्राप्त कर लिया और तदनुरूप सृजन कार्य शुभारम्भ कर दिया। इस प्रकार अनेक सद्ग्रन्थों की रचना कर चिरस्मरणीय कीर्तिमान स्थापित किया है। साथ ही दीक्षा गुरु के नाम को चिरस्थाई बनाने हेतु एक संस्कृत विद्यापीठ स्थापित कराया, जिसमें अनेक विद्वान् शास्त्री और आचार्यों की उपाधियाँ प्राप्त कर प्रेरणा के स्रोत बने हैं। "जम्बूद्वीप" निर्माण की पावन प्रेरिका बनकर श्री हस्तिनापुर क्षेत्र को प्रगति के शिखर पर पहुँचाने का श्रेय भी आपको ही है। इस प्रकार पूज्य माताजी ने अपने संयमित जीवन के साथ-साथ जिन-दर्शन, जिन-साहित्य एवं आचार्यों के पुनीत ग्रन्थों का आलोढ़न कर समाज एवं राष्ट्र को जो ज्ञान-प्रकाश दिया है वह युग-युग तक मोक्ष-मार्ग को प्रकाशित करता रहेगा। अस्तु, आप धर्म का ज्योति-स्तम्भ बनकर जन-जन की आत्मा को धर्म ज्ञान के आलोक से प्रकाशित कर रही हैं। उक्त सन्दर्भ में किसी कवि ने स्व ही कहा है "गुण गौरव की कोमल कलियाँ, नित नूतन जीवन भरती । खुशबूदार प्रेम से मानव, मन को आह्लादित करतीं। माताजी के आशीर्वाद से जब मैं स्वस्थ हुई -ब्र० चित्राबाईजी [संघस्थ आ० विमलसागरजी] पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का प्रथम दर्शन मैंने लगभग ३८ वर्ष पूर्व कोल्हापुर (महाराष्ट्र) अपने नगर में किया था। आज भी आपके ज्ञान व उपदेश की चर्चा हमारे नगर के घर-घर में होती है। आपकी कठोर तपस्या एवं ब्रह्मचर्य के तेज का अतिशय मैंने तब स्वयं अनुभव किया है, जब सन् १९८७ में आचार्य श्री विमलसागर महाराज के संघ के साथ मैं भी हस्तिनापुर जम्बूद्वीप स्थल पर चौका लगा रही थी। एक दिन मेरे पैरों में इतना दर्द हुआ कि सूजन आ गई और मेरा उठना-बैठना मुश्किल हो गया। मैंने प्रातःकाल कु० माधुरी (वर्तमान में आ० चन्दनामती) को बुलाकर कहा कि मुझे ज्ञानमती माताजी की पहनी हुई धोती लाकर दो; क्योंकि मुझे विश्वास था कि इस बाल ब्रह्मचारिणी की धोती पहनकर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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