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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
अंत में ब्यावर से मेरे साथ शोलापुर श्राविकाश्रम में ले जाने के लिए खुद माताजी ने आचार्यश्री की अनुज्ञा लेकर पूरा प्रबंध किया। उस कंचनबाई ने ४/५ साल शोलापुर श्राविकाश्रम में सदाचरण में कालयापन किया। खुद निमित्त बनकर माताजी ने पूरा पुरुषार्थं किया। होनहार जैसा है वैसा होगा, इस मान्यता में हतबल होकर धर्म की निंदा माताजी कभी सहन नहीं कर सकतीं। नामैषणा, छल-कपट से रहित होकर त्यागी अवस्था में भी एक महिला के प्रति वात्सल्यभरी निगाह से जो कार्य किया वह मेरे आँखों देखा हाल है।
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नेत्रदीपक प्रेरणा के संस्मरण का एक पुष्प- स्व० आ० शांतिसागरजी के चतुर्थ पट्टाधीश स्व० आ० अजितसागरजी के जीवन को वैराग्यमयी मां का परिसंस्पर्श हुआ था । उत्साह, उल्लास की उमंग माताजी का स्थायी भाव है। निराशा, कायरता, हतबल, वृत्ति जैसी हीन प्रवृत्तियों ने माताजी का कभी स्पर्श ही नहीं किया । त्याग, वैराग्यभाव से उनका जीवन सागर पूरा भरा है। इसमें कई वैराग्य जीवन की सरिताएँ स्वयं प्रवाहित होकर समा गई हैं। अजमेर में संघ का चौमासा था। वहीं दीवाली की छुट्टियों में मैं पहुंची। माताजी द्वारा संघस्थ साधुवृंद का अध्यापन कक्ष त्रिकाल चल रहा था किशोरावस्था का एक कुमार भी अध्ययनरत था। माताजी किताबी ज्ञान के साथ चारित्र की घंटी उसे पिला रही थीं। वर्णों ब्रह्मचारी के वेश में एक दिन उसे देखकर सारे समाज को आश्चर्य हुआ । संस्कृत, व्याकरण, न्याय, आगम, अध्यात्म सारे ग्रंथों का अध्यापन उसे करवाकर निष्णात किया कुमार का मनोबल, शरीर बल वृद्धिंगत इतना हो गया कि आगे के चौमासे में उसने आचार्यश्री के चरणों में मुनिदीक्षा सीकर में स्वीकारी, इस दीक्षा में भी प्रबल निमित्त पूज्य माताजी का ही रहा ।
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रोज प्रातः माताजी का स्वयं भाव विभोर होकर दर्शन करने वाला यह बालक जब मुनि बन गया, तब माताजी ने उसे स्वयं नमोस्तु किया । चालीस साल की दीक्षित आर्यिका और एक दिन का मुनि इनमें पूज्यता की दृष्टि में इतनी विशेषता होती है माताजी के अंतःकरण में एक ही धुन है कि सारा संसार व्याकुलता से निराकुलपद में कैसे स्थिर होकर आनंद का स्रोत पायेगा ? अपाय-विचय धर्मध्यान की वही निशानी उनमें सौ टंच मैने देखी है।
स्व० आचार्य अजितसागरजी की यह धर्म माता धन्य हैं। उपादान की योग्यतानुसार कार्य तो होता रहेगा, मगर पुरुषार्थ त्याग तपस्या का निमित्त जुटाना, जोड़ने में कभी प्रमाद या कसूर नहीं करना यही माताजी की धारणा है पू० माताजी इसी में गतिमान होकर रलत्रय का प्रगति पथ हरेक को दिखलाती हैं। पू० माताजी ने अनेक भव्यों पर अनुग्रह किया ही है। उसी के साथ अपने परिवार को धर्म का रसायन पिलाया। जन्मदात्री माँ की आर्यिका दीक्षा व समाधि, २ भगिनियों की आर्यिका दीक्षाएँ, बंधु रविंद्रकुमार को सांस्कृतिक- सामाजिक योगदान तथा व्रती जीवन व युवकों का नेतृत्व, हस्तिनापुर का भौगोलिक नेत्र दीपक प्रकल्प, न्याय ग्रंथ अष्टसहस्त्री जैसे का अनुवाद, उपन्यास, कहानियाँ और सबसे बड़ा आकर्षण पूजा विधानों की सरस-सरल पद्यमय रचनाओं आदि के द्वारा इसी भारतीय नारी का सर्वोच्च सम्मान हुआ है। "नारी गुणवती धत्ते श्री सृष्टेरग्रिमं पदम्" माताजी को यह अग्रिम पद स्वयं क्रांतिमय जीवनोत्कर्ष से प्राप्त हुआ है।
माताजी की पदयात्रा से भारतभूमि का उत्तर से दक्षिण तक एक-एक गांव पावन हुआ है। उन्होंने समाज को संगठित कराकर धर्म की ध्वजा फहराई है।
भ० बाहुबली गोमटेश्वर यात्रा में हैदराबाद प्रवास में निजी बहन मनोवती को क्षुल्लिका दीक्षा का महोत्सव आन्ध्र प्रांत में अनोखी प्रभावना का कार्य मैंने देखा है। वे भी आज साहित्य सृजन में, समाज के उद्बोधन, प्रबोधन में लगी हैं। कुमारिकाओं का आर्यिका संघ उन्होंने ही प्रथम बार स्वयं स्थापित किया है।
भ० बाहुबली गोमटेश्वर की यात्रा सम्पन्न करके १९६५ में माताजी के संघ का शोलापुर श्राविका संस्थानगर में शुभागमन हुआ। ५ आर्यिकाएँ थीं। उसी समय शहर के मंदिर में १०८ पू० आचार्य विमलसागरजी के संघ का भी चातुर्मास था। शोलापुर के समाज के भाग्योदय का काल था। धर्मामृत की वर्षा रोज चारों तरफ बरसती थी । श्राविकाश्रम में माताजी के २/३ केशलोच समारंभ, रोज के प्रवचन, पठन-पाठन पूजाविधान आदि कार्यक्रमों द्वारा श्राविका संस्था के पन्ने सुवर्णांकित हो रहे थे। जम्बूद्वीप प्रकल्प का उद्गम स्थान, विचारों का बीजांकुरारोपण यहीं हुआ था। पूज्य माताजी अपना सारा विचारमंथन हमें बताकर सुमतीबाईजी को प्रेरित करती थीं। समानशील व्यसनेषु सख्यम्। माताजी और हमारा उत्साह रोज बीज के चंद्रकौर के समान वृद्धिंगत होता था। हर शनिवार को सुबह ७ बजे स्कूल के प्रांगण में हजारों छात्राएँ तथा अध्यापकगण, पूज्य माताजी की सुश्राव्य कहानी, प्रचुर प्रवचन सुनने के लिए लालायित होता था। प्रवचन द्वारा माताजी घर-घर पहुंचती थीं। रोज मानो माताजी आदि-मध्य-अंतिम-मंगल श्राविका संस्था में गा-गा करके सभी का मंगल चाहती थीं। वैसे तो माताजी का स्वास्थ्य कमजोर है, क्योंकि संग्रहणी की बीमारी से
आहार में हमेशा बाधाएँ पड़ती हैं, लेकिन माताजी का आत्मबल, मनोबल बलशाली है, सागर जैसा महान् गहरा, पृथ्वी समान विशाल, आसमान जैसा निर्लेप है। इसलिए आज यह पूनो का चाँद अभिवंदन ग्रंथ द्वारा सम्मानित वंदनीय हो रहा है। 1
चरणों में शत शत वंदन ।
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