SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ दर्शनार्थ श्राविका संस्थानगर शोलापुर के श्राविकाश्रम में पधारी थीं। इसी शुभ बेला में आश्रम में सातिशय, मनोज्ञ कमलासन, की ढाईफुट की शिल्पकलात्मक मूर्ति का रेलवे स्टेशन से शुभागमन हुआ था। जयपुर से स्व. बधीचंद्रजी गंगवाल, श्रीमहावीरजी क्षेत्र के महामंत्री ने यह अनमोल भेंट की अपूर्व देन संस्था को प्रदान कर संस्था में चार चाँद लगाये थे। पू० क्षु० वीरमतीजी के तपःपुंज गौरवर्णीय ऊंचे पूरे कद ने शोलापुर समाज का चित्त आकर्षित किया था। संस्था की संचालिका पं. सुमतीबाईजी, संस्था के पदाधिकारी तथा समाज ने आग्रह किया कि माताजी का कुछ काल वास्तव्य संस्था में हो। वे यहीं अपना अध्ययन-अध्यापन करके आश्रमवासी महिलाओं के लिए आदर्श बनी रहें, किंतु माताजी तीव्रतम वैराग्य प्रवाह में थीं। एक चौमासा म्हसवड़ में किया। क्षु० विशालमतीजी यह रत्न महाराष्ट्र में लाई थीं। स्वतंत्रता की सेनानी विशालमतीजी और माताजी का आत्मसम्मान, निजी आजादी के लिए अपनी जिंदगियाँ कुर्बान कर रही थीं। यह दृश्य उस समय मुझे बड़ा प्रभावित कर रहा था। एक चौमासे के अनंतर ही म्हसवड़ से क्षु० वीरमतीजी द्वारा आचार्यश्री शांतिसागरजी के प्रथम पट्टाधीश १०८ वीरसागरजी के विशाल संघ में दो महिलारत्न लेकर प्रस्थान करने की वार्ता सुनने में आयी। स्वप्रवत् देखी, सुनी अनुभूत घटना से मुझे व्याकुलता हो गई। क्षु० वीरमतीजी के दिव्य आकर्षणों की प्रकाश किरणें मेरे जीवन को आलोकित कर रही हैं। स्मृति का द्वितीय कोमल पुष्प १९६५ में व्याकुलतामय क्षणों से निराकुल होने का सही मार्ग मेरी जन्मदात्री आर्यिका स्व० चंद्रमतीजी ने दिखलाया। १०८ पूज्य वीरसागरजी के कारंजा चौमासा में मां (ब्र० माणिकबाई) ने उनके ही चरणों में सप्तम प्रतिमा धारण की थी। अतः मैं भी उसे लेकर जयपुर पहुंची। पूज्य आचार्य श्री वीरसागरजी के मानस-पुत्र ब्र० सूरजमलजी संघ के कुशल कर्णधार थे। इतना विशाल चतुर्विध संघ पहली बार देखकर हम भी फूले न समाये। तब संघ में देखा क्षु० वीरमतीजी का रूपांतर आर्यिका ज्ञानमतीजी में हो गया है। बाल ब्रह्मचारिणी प्रभावती जो आज आर्यिका जिनमती हैं तथा स्व० ब्र० सोनूबाई (स्व० आर्यिका पद्मावती) महाराष्ट्रीय माताओं के प्रति हमारा विशेष अनुराग हुआ। पूज्य ज्ञानमतीजी के निर्मल गहरे सूक्ष्म ज्ञान की विशेषता देखकर ही पूज्य आचार्य श्री ने अब भी "ज्ञानमती" सार्थक नामकरण किया होगा। पूज्य ज्ञानमतीजी के ज्ञान की प्रभा में मेरी माँ पूरी तरह समा गयीं। बाल तपस्विनी, विदुषी को देखते ही उनकी वैराग्य कली विकसित हुई। जयपुर के ऐतिहासिक खानिया मंदिर में माँ की क्षु० दीक्षा आचार्यश्री के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुई, लेकिन मुझे मोह ने विपन्नावस्था में छोड़ा। मेरे आँसू देखते ही माँ (क्षु० चंद्रमती) मुझे ज्ञानमतीजी की ओर अँगुली दिखाकर धैर्य बाँधने के लिए बाध्य कर रही थीं। पूज्य ज्ञानमतीजी संघस्थ वयोवृद्ध, युवा सभी तरह के साधुवृंदों के साथ स्वाध्याय में मग्न महाव्रतादि आचरण में लीन थीं। जयपुर के खानियाजी नशिया में उस समय भारत के सभी प्रांतों के दर्शनार्थियों का ताँता-सा लगा था। इतना विशाल साधुसंघ खद्योतवत् वहाँ चमक रहा था। संघ का पावन दर्शन पाकर हरेक दर्शनार्थी का मन मूयर नाच उठता था। उम्र में सबसे छोटी, किंतु क्षयोपशम विशेष से ज्ञान में बड़ी माताजी पू० ज्ञानमतीजी ही मुझे ज्ञात हो रही थीं। जन्मदा माँ को उन्हीं के पास छोड़कर मुझे विदाई लेनी पड़ी। स्मृतियों के अनोखे महकते पुष्प- शोलापुर श्राविका संस्थानगर हाईस्कूल की धुरा मुख्याध्यापिका का पद मैं सँभाल रही थी। हाईस्कूल की छोटी-बड़ी छुट्टियों में मेरा पीहर मानो संघ बन रहा था। दिवाली का त्यौहार, ग्रीष्मावकाश के मेरे दिन पू० ज्ञानमतीजी के सहवास में अनायारा बीतने लगे। छुट्टी की इंतजार में, संघस्थ साधुवृंदों के दर्शन की प्रतीक्षा में मैं एक-एक दिन शोलापुर में बड़ी मुश्किल से गिनती थी। मेरी यात्रा में साथ सहेली का कार्य प्रभावती वर्तमान में (सुप्रभावती आर्यिका) तन-मन-धन न्यौछावर करके करती थीं। ब्यावर का एक कटु सत्य संस्मरण पुष्प- पू० आ० शांतिसागरजी के द्वितीय पट्टाधीश आ० शिवसागरजी का संघ गिरनार यात्रा में था। ब्यावर में रानीवाला की नशियां में मैंने और प्रभावती ने छुट्टी का कालयापन किया। तब की घटना याद आती है। ब्यावर में तथाकथित कुछ सुधारकों ने एक जैन समाज की बाल विधवा पर संकट लाया। पुनर्विवाह का प्रस्ताव समाज कंटकों द्वारा मंजूर हुआ। पूज्य माताजी को यह नारी जीवन का कलंक लगा। माताजी ने रातों-रात उस अंजान महिला को अपने सानिध्य में बुलवाकर विधवा विवाह से परावृत्त-निवृत्त किया। तथाकथित सुधारकों को समझाया-रे सुधारक! जगत् की चिंता मत कर यार । तेरे दिल में जग बसे, पहले ताहि सुधार। संघस्थ सभी साधुवंद में हलचल क्रांति जैसी होने लगी। माताजी इस महिला का क्या करेंगी? "इतो भ्रष्टा-ततो भ्रष्टा" संघ में तो न रख सकेंगी, लेकिन माताजी ने बड़े धैर्य से पू० आचार्यश्री तथा स्व० १०८ श्रुतसागरजी को समझाया। नारी जीवन के प्रति अनुकम्पा भाव सभी साधुओं के अंतःकरण में जगाया और उस महिला की जीवन समस्या का चतुराई से,कुशलता से हल किया। उस महिला को ब्रह्मचारिणी का वेश रातों-रात दिया और उस आपत्तिग्रस्त महिला पर ब्रह्मचर्य व्रतों के संस्कार किये, उसे व्रतों में स्थिर किया। पूज्य माताजी ने धर्म के लिए सारे अपवाद-प्रवाद सहन तो किये। उपगृहन अंग का प्रात्यक्षिक दिखलाया स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य, बालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तत् वदन्ति उपगृहनम् ।। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy