SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 463
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ दूसरा नाम तत्त्वार्थशास्त्र है। प्राचीन समय में यह इस नाम से अधिक प्रचलित रहा। इसके सिवाय इसका एक नाम " तत्त्वार्थ" भी है, जिसे आचार्य गुद्धपिच्छ के किसी टीकाकार ने भी दिया है और जो इस प्रकार है: 'दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थे पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुंगवैः ॥ इस पद्य में तत्त्वार्थसूत्र का "तत्त्वार्थ" नाम स्पष्ट समुल्लिखित है तथा उसे “दश अध्यायों वाला" बतलाया गया है। आप्तमीमांसा की व्याख्याएँ: इस आप्तमीमांसा पर भी तीन व्याख्याएँ उपलब्ध है १. आप्तमीमांसा (देवागम) - विवृत्ति (अष्टशती) २. आप्तमीमांसालंकृति (देवागमालंकृति), जिसे अष्टसहस्री भी कहा गया है और जो इस नाम से सर्वाधिक विश्रुत है तथा तीसरी व्याख्या है, ३. देवागमवृत्ति (आप्तमीमांसावृत्ति) । 1 १. आ. विद्यानन्द ने अहसहसी के अन्त में आ. अकलंकदेव के समाप्ति मंगल से पूर्व "केचित" शब्दों के साथ देवागम के किसी पूर्ववर्ती अशत व्याख्याकार का "जयति जगति" आदि समाप्ति-मंगलपा दिया है उससे प्रतीत होता है कि अकलंकदेव के पूर्व भी देवागम पर किसी आचार्य की व्याख्या रही है। लघु समन्तभद्र (१३वीं शती) ने अपने अष्टसहस्री - टिप्पण) पृ. १ ) में वादीभसिंह द्वारा देवागम के उपलालन (व्याख्यान) करने का उल्लेख किया है। पर यह भी अनुपलब्ध है। अकलंकदेव ने अष्टशती (कारिका ३३ की विवृत्ति) में एक स्थान पर "पाठान्तरमिदं बहुसंग्रहीतं भवति" शब्दों का प्रयोग किया है, जिससे देवागम के पाठ भेदों तथा उसकी अनेक व्याख्याओं के होने का स्पष्ट संकेत मिलता है। देवागम के महत्त्व को देखते हुए उसकी अनेक व्याख्याओं के होने में आश्चर्य नहीं है। १. आप्तमीमांसा (देवागम) विवृत्ति - यह आप्तमीमांसा की उपलब्ध व्याख्याओं में सबसे प्राचीन और अत्यन्त दुरूह व्याख्या है। इसके रचयिता आ. अकलंकदेव हैं, जिनके न्याय-विनिश्चय, सिद्धि-विनिश्चय, लघीयस्त्रय, तत्त्वार्थवार्तिक आदि अन्य दुरवगाह दार्शनिक ग्रन्थ हैं। इसके परिच्छेदों के अन्त में जो समाप्ति-पुष्पिका वाक्य पाये जाते हैं उनमें इसका "आप्तमीमांसा भाष्य (देवागम-भाष्य) के नाम से भी उल्लेख हुआ है।' आचार्य विद्यानन्द ने अष्टसहस्त्री के तृतीय परिच्छेद के आरम्भ में, जो ग्रन्थ प्रशंसा में पद्य दिया है, उसमें उन्होंने इसका "अष्टशती" नाम भी निर्दिष्ट किया है। " सम्भवतः आठ सौ श्लोक प्रमाण रचना होने से उन्होंने "अष्टशती" कहा है। लगता है कि अष्टशती को ध्यान में रखकर ही अपनी "आत्मामीमांसालंकृति" व्याख्या को इन्होंने आठ हजार श्लोक प्रमित बनाया और "अष्टसहस्त्री" नाम रखा इस तरह अकलंकदेव की यह "आप्तमीमांसाविवृत्ति" देवागम-विवृत्ति, आप्तमीमांसाभाष्य (देवागम भाष्य) और अष्टशती इन तीन नामों से जैन वाड्मय में विश्रुत है इसका प्रत्येक स्थल इतना जटिल और गम्भीर है कि साधारण विद्वानों का उसमें प्रवेश सम्भव नहीं है। उसके मर्म एवं रहस्य को अष्टसहस्त्री के सहारे ही ज्ञात किया जा सकता है। भारतीय दर्शन - साहित्य में इसकी जोड़ की दुरुह रचना मिलना प्रायः दुर्लभ है। अष्टसहस्त्री के अध्ययन में जिस प्रकार कष्ट का अनुभव होता है उसी प्रकार बल्कि उससे अधिक कष्ट का अनुभव इस व्याख्या के अध्ययन में उसके अध्येता को होता है। दूसरी व्याख्या अष्टसहस्त्री है, जो हमारी समीक्षा का विषय है और माताजी द्वारा किया गया उसका हिन्दी अनुवाद भी समालोच्य है। इनकी समीक्षा आगे करेंगे। उससे पूर्व तीसरी व्याख्या आप्तमीमांसावृत्ति [देवागमवृत्ति ] पर संक्षेप में प्रकाश डाला जाता है। [३९९ ३. आप्तमीमांसावृत्ति-नीसरी व्याख्या आप्तमीमांसावृत्ति (देवागमवृत्ति) है। यह लघु परिमाण रचना है। यह न अष्टशती की तरह दुरुह है और न अष्टसहस्री के समान विस्तृत एवं गम्भीर है। कारिकाओं की व्याख्या भी लम्बी नहीं है और न दार्शनिक ऊहापोह पूर्ण विवेचन है मात्र कारिकाओं और उनके पद-वाक्यों का शब्दार्थ और कहीं-कहीं अतिसंक्षेप में फलितार्थ प्रस्तुत किया है। पर हाँ, कारिकाओं का अर्थ समझने के लिए यह वृत्ति उपयोगी है। इसके कर्ता आचार्य वसुनन्दि (१२वीं शती) हैं, जिन्होंने वृत्ति के अन्त में लिखा है ' कि मैं मन्दबुद्धि और विस्मरणशील व्यक्ति हूँ। मैंने अपने उपकार के लिए ही देवागम-आप्तमीमांसा की यह वृत्ति लिखी है।" वृत्तिकार के इस आत्म-निवेदन से इसकी लघुरूपता और उसका प्रयोजना अवगत हो जाता है। उल्लेखनीय है कि वसुनन्दि के समक्ष देवागम की ११४ कारिकाओं पर ही लिखी अष्टशती और अष्टसहस्त्री उपलब्ध होते हुए तथा "जयति जगति" आदि पद्य को विद्यानन्द के उल्लेखानुसार किसी पूर्ववर्ती आचार्य की देवागम व्याख्या का समाप्ति-मंगल पद्य जानते हुए भी उन्होंने उसे देवागम की ११५वीं कारिका किस आधार पर माना और उसकी वृत्ति लिखी। यह विचारणीय है। हमारा विचार है कि प्राचीनकाल में साधुओं में चारित्रभूष मुनिराज की तरह देवागम का पाठ करने और उसे कण्ठस्थ रखने की परम्परा रही है। वसुनन्दि ने देवागम को ऐसी प्रतिपद के कण्ठस्थ किया होगा, जिसमें मूलमात्र देवागम की ११४ कारिकाओं के साथ उक्त अज्ञात देवागम व्याख्या का समाप्ति-मंगलपद्य "जयति जगति" आदि भी अंकित होगा और उस पर ३. "इत्याप्तमीमांसा भाष्ये दशमः परिच्छेदः (६) (१०) ४. " अष्टशती प्रथितार्था साष्टसहस्री कृतापि संक्षेपात् । विलसदकलंकधिषणैः प्रपंचनिचिनावबोद्धव्या ॥ " (अष्टस. पृ. १७८) “श्रीमत्समन्तभद्राचार्यस्य.... देवागमाख्यातकृतेः संक्षेपभूतंविवरणं कृतं श्रुतविस्मरणशीलेन वसुनन्दिनाजड़मतिनाऽऽ, त्मोपकाराय।” - वसुनन्दि, देवागमवृत्ति, पृ. ५०, सनातन जैन प्र. काशी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy