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________________ ३९८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला जैन न्याय की सर्वोत्कृष्ट कृति अष्टसहस्त्री और उसका अनुवाद समीक्षक-डा० दरबारीलाल कोठिया, वाराणसी पूर्ववृत्तजैन वाङ्मय में आचार्य विद्यानन्द का बहुत सम्मान पूर्ण स्थान है और उनकी कृतियों को आप्तवचन जैसा माना जाता है। इनके उल्लेखानुसार स्वामी समन्तभद्र ने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ-स्तुतिग्रन्थ देवागम अपरनाम आप्तमीमांसा की रचना आचार्य गृद्धपिच्छ रचित तत्त्वार्थसूत्र के आरम्भ में किए गए 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि मंगलाचरण में स्तुत आप्त की मीमांसा के रूप में की थी। उनके वे उल्लेख निम्न प्रकार हैं१. शास्त्रावतार रचित स्तुति गोचराप्तमीमांसितं कृति। अष्टस. मङ्गलश्लोक २ पृ. २। २. शास्त्रारम्भेऽभिष्टुतस्याप्तस्य मोक्षमार्ग प्रणेतृतया कर्मभूभृद्वेतृतया विश्वतत्त्वानी ज्ञातृतया च भगवदर्हत्सर्वज्ञस्यैवान्य योग व्यवच्छेद्देन व्यवस्थापन परा परीक्षेयं [आप्तमीमांसेयं] विहिता। विद्यानन्द ने अपने इस कथन को साधार और परम्परागत बतलाने के लिए उसे अकलङ्कदेव के 'अष्टशती' गत उस प्रतिपादन से भी प्रमाणित किया है, जिसमें अकलङ्कदेव ने आप्त की मीमांसा (परीक्षा) करने के कारण समन्तभद्र पर किए जाने वाले अश्रद्धालुता और अगुणज्ञता के आक्षेपों का उत्तर देते हुए कहा है कि ग्रन्थकार ने देवागमादि.......मङ्गलपूर्वक की गई 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि मङ्गलस्तोत्र के विषयभूत परमात्मा के गुणविशेषों की परीक्षा [ऊहापोह पूर्वक चिन्तन] को स्वीकार किया है इससे उनमें श्रद्धा और गुणज्ञता दोनों बातें स्वयं सिद्ध हो जाती हैं क्योंकि उनमें से एक की भी कमी रहने पर परीक्षा संभव नहीं है। निश्चय ही ग्रन्थकार ने न्यायशास्त्र [तत्त्वार्थ शास्त्र की पद्धति मङ्गल विधान पूर्वक शास्त्रकरण] का अनुसरण करके ही आप्तमीमांसा की रचना का उपक्रम किया है और इससे सहज ही जाना जा सकता है कि ग्रन्थकार में श्रद्धा और गुणज्ञता दोनों हैं जो किसी सम्यक् परीक्षा के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी हैं। अकलङ्क का वह प्रतिपादन इस प्रकार हैदेवागमेत्यादिमङ्गलपुरस्सरस्तवविषयपरमात्मगुणातिशयपरीक्षा....... -अष्टशती, अष्टस. पृ. २ विद्यानन्द ने अकलङ्कदेव के इस प्रतिपादन और अपने मंगलाचरण में उक्त शास्त्रावतार आदि कथन का इसी अष्टसहस्री [पृष्ठ-३] में समन्वय भी किया है और इस तरह अपने निरूपण-आप्तमीमांसा का मूलाधार [जनक] तत्त्वार्थसूत्र का 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि मङ्गलस्तोत्र है इस कथन को उन्होंने परम्परागत सिद्ध करके उसमें प्रामाण्य स्थापित किया है। साथ ही उसे स्वरुचि या मनगढन्त होने का निरसन किया है। इसके अतिरिक्त उपसंहार में भी कहा है कि आ० गृद्धपिच्छ ने अपने तत्त्वार्थसूत्र [निःश्रेयस-शास्त्र] के आदि में उसका कारण और मङ्गल रूप होने से जिन चमत्कार शून्य गुणों द्वारा भगवान आप्त का स्तवन किया है उन गुणों की परीक्षा के लिए स्वामी समन्तभद्र ने श्रद्धा और गुणज्ञतापूर्ण हृदय से आप्तमीमांसा रची है। 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' स्तोत्र तत्त्वार्थसूत्र का मङ्गलाचरण जहाँ विद्यानन्द और अकलङ्कदेव के उपर्युक्त उल्लेखों से सिद्ध है कि स्वामी समन्तभद्र की आप्तमीमांसा 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि स्तोत्र के व्याख्यान में लिखी गई है वहीं यह भी स्पष्ट है कि उक्त स्तोत्र तत्त्वार्थसूत्र का मङ्गलाचरण है। तथा तत्त्वार्थसूत्र से उन्हें तत्त्वार्थ अथवा तत्त्वार्थ शास्त्र विवक्षित है, जो आचार्य गृद्धपिच्छ रचित दशाध्यायीरूप है। इस सम्बन्ध में पर्याप्त ऊहापोह एवं "मोक्षमार्गस्य नेतारम्" मंगलश्लोक को गृद्धपिच्छाचार्यकृत तत्त्वार्थशास्त्र का मंगलाचरण बतलाने वाला एक अतिस्पष्ट एवं अभ्रान्त उल्लेख और प्राप्त हुआ है। वह इस प्रकार है"गृद्धपिच्छाचार्येणापि तत्त्वार्थशास्त्रस्यादौ । “मोक्षमार्गस्य नेतारम्" इत्यादिना अर्हन्नमस्कारस्यैव परममंगलतयाप्रथममुक्तत्वात् ' ___ गो.जी.,म.प्र.टी.पृ.४। यह उल्लेख सात आठ सौ वर्ष प्राचीन गोम्मटसार जीवकाण्ड की मन्द प्रबोधिका टीका के रचयिता सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य अभयचन्द्र (१२वीं-१३वीं शती) का है। इसमें उन्होंने दो बातें स्पष्ट कही हैं। एक तो यह कि "मोक्षमार्गस्य नेतारम्" आदि मंगलाचरण तत्त्वार्थशास्त्र के आदि में किया गया है, जो आचार्य गृद्धपिच्छ की रचना है। वह पूज्यपाद-देवनन्दि की तत्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि) का मंगलाचरण नहीं है। दूसरी बात यह है कि तत्तवार्थसूत्र का १. "तदेव निःश्रेयसशास्त्रस्या दो तत्रिबन्धनतया मंगलार्थतया च मुनिभिः संस्तुतेन निरतिशयगुणेन भगवताप्तेन श्रेयोमार्गमात्महितमिच्छतां सम्यग्मिथ्योपदेशार्थ विशेषप्रतिपत्यर्थमाप्तमीमांसांविदधानाः श्रद्धागुणज्ञताभ्यां प्रयुक्तमनसः...... २. "कथं पुनस्तत्त्वार्थः शास्त्र-इति चेत् तल्लक्षणयोगत्वात्।... तत्त्व तत्त्वार्थस्य दशाध्यायीरूपस्यास्तीतिशास्त्रं तत्त्वार्थः ।" - त.श्लो. पृ. २ । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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