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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
११५ संख्या का अंक डाल दिया होगा। वसुनन्दि ने अष्टशती और अष्टसहस्री टीकाओं पर से इसकी जानकारी एवं अनुसंधान किये बिना देवागम का अर्थ हृदयंगम रखने के लिए यह देवागमवृत्ति लिखी होगी और उसमें उपलब्ध सभी कण्ठस्थ ११५ कारिकाओं का अर्थ लिखा होगा। यही कारण है कि प्रस्तुत वृत्ति में न अष्टशती के पद-वाक्यादि का उल्लेख मिलता है और न अष्टसहस्री के। यह आश्चर्य ही है। अस्तु । २. आप्तमीमांसालंकृतिः अष्टसहस्त्री-अब हम अपने अभिप्रेत विषय पर विचार करेंगे। आप्तमीमांसा की दूसरी व्याख्या आप्तमीमांसालंकृति है। इसे आप्तमीमांसालंकार, देवागमालंकार और देवागमालंकृति इन नामों से भी व्यवहृत किया जाता है। आठ हजार श्लोक प्रमाण होने से इसे विद्यानंद ने स्वयं "अष्टसहस्री" भी कहा है। इस नाम से यह अधिक प्रसिद्ध है।
जैन दर्शन की जो महनीय कृतियाँ हैं उनमें यह अप्रतिम कृति है और इसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। परम वन्दनीय श्री गणेशप्रसाद वर्णी (मुनि गणेश कीर्ति) के न्याय विद्यागुरु और बीसवीं शती के प्रख्यात वैदिक नैयायिक श्री अम्बादास शास्त्री इसकी प्रशंसा करते हुए कहा करते थे कि “समस्त भारतीय वाङ्मय में "अष्टसहस्री" एक ऐसा दार्शनिक प्रौढ़ ग्रन्थरत्न है, जिसकी तुलना करने वाला कोई अन्य ग्रन्थ कम से कम मुझे दृष्टिगोचर नहीं हुआ। इसमें सभी का प्रवेश सम्भव नहीं है। यह "लोहे का चना" है, जिसे चबाना दुष्कर है।"
वस्तुतः “अष्टसहस्री" जैन-जनेतर न्यायशास्त्र और दर्शनशास्त्र के विशिष्ट मनीषी आचार्य विद्यानंद (९वीं शती) की जैन प्रमाणशास्त्र पर प्रौढ़ संस्कृत में लिखी गयी एक ऐसी महत्त्वपूर्ण, गरिमामण्डित एवं विशाल व्याख्या है, जिसकी प्रतिनिधि कृति भारतीय दर्शन-वाङ्मय में अलभ्य है। विषय, भाषा और प्रवाहपूर्ण प्रौढ़ प्रतिपादनशैली तीनों की दृष्टि से यह अपनी गरिमा, स्वस्थ, प्रसन्न और गम्भीर विचारसणिका विद्वन्मानस पर अमिट प्रभाव अंकित करती है। सम्भवतः इसी से यह अतीत में विद्वत्प्रिय एवं ग्राह्य रही है और वर्तमान में भी विद्वानों द्वारा अध्येतव्य एवं प्रशंसनीय है। देवागम की व्याख्याओं में यह प्रमेयबहुल व्याख्या है। इसमें देवागम की कारिकाओं और उनके प्रत्येक पदवाक्यादि का विस्तारपूर्वक विशद अर्थोद्घाटन तो किया ही गया है। अष्टशती के भी दुरुह पदवाक्यादिकों का अर्थ एवं रहस्य बड़ी कुशलता से स्पष्ट किया है। अष्टशती को अष्टसहस्री में इस तरह आत्मसात् कर लिया गया है कि यदि दोनों को भेदसूचक पृथक्-पृथक् संकेतों में न रखा जाये, तो पाठक को यह जानना कठिन है कि यह अष्टशती का अंश है और यह अष्टसहस्री का । यथार्थ में विद्यानन्द ने अष्टशती के आगे-पीछे की और मध्य की आवश्यक एवं प्रकरणोपयोगी (सान्दर्भिक) वाक्यरचना करके उसे इसमें मणिप्रवालन्याय से ऐसा मिला लिया है कि उन्हें दो ग्रन्थकारों की रचना नहीं समझा जा सकता । यह विद्यानन्द की तलस्पर्शिनी अद्भुत प्रतिभा का वैशिष्ट्य एवं चमत्कार है। यदि विद्यानन्द यह अष्टसहस्री न रचते तो अष्टशती का गूढ़ रहस्य उसी में छिपा रहता और मेधावियों के लिए वह रहस्यपूर्ण एवं अज्ञेय बनी रहती।
देवागम और अष्टशती के व्याख्यानों के अतिरिक्त इसमें विद्यानन्द ने कितना ही नया, अपूर्व और विचारपूर्ण प्रमेय तथा अभिनव चर्चाएँ प्रस्तुत की हैं। उदाहरणार्थ- नियोग, भावना और विधि वेद वाक्यार्थ की चर्चा को,जिसे प्रभाकर और कुमारिल मीमांसक विद्वानों तथा मण्डन मिश्र आदि वेदान्त दार्शनिकों ने जन्म दिया और जिसकी सामान्य आलोचना बौद्ध मनीषी प्रज्ञाकर ने की। उसे विद्यानन्द ने इसमें विस्तार से समाहित किया, तथा सूक्ष्मता से उसकी समीक्षा की। इसी तरह अनेकान्तवाद में एकान्तवादियों द्वारा उद्भावित किये जाने वाले विरोध, वैयधिकरण्य आदि आठ दोषों को विद्यानन्द ने ही सबसे पहले इसमें प्रदर्शित किया और उनका निराकरण भी किया। उनकी उपादान-निमित्त आदि की अपूर्व चर्चाएँ भी इसमें समाहित हैं। वस्तुतः अष्टसहस्री विद्यानंद के काल तक विकसित अनेक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक चर्चाओं एवं विचारों का आकर-ग्रन्थराज है। अष्टसहस्त्री की व्याख्याएँ:
यद्यपि यह स्वयं एक व्याख्या है। किन्तु इस पर भी दो व्याख्याएँ हैं। एक है "अष्टसहस्री-विषमपद-तात्पर्य टीका" और दूसरी "अष्टसहस्री-तात्पर्य-विवरण" । प्रथम के रचयिता हैं लघु समन्तभद्र (१३वीं शती) और दूसरी के लेखक हैं यशोविजय (१७वीं शती) । लघुसमन्तभद्र ने जहाँ अपनी तात्पर्य-टीका में अष्टसहस्री के विषम (कठिन) पदों का अर्थ एवं अतिसंक्षेप में स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया है वहाँ यशोविजय ने अष्टसहस्री के जटिल स्थलों का तात्पर्य दिया है। साथ ही नव्य-न्याय-शैली से उन स्थलों को परिष्कृत किया है। लघुसमन्तभद्र की टीकामुद्रित अष्टसहस्री में उसके पाद-टिप्पण के रूप में प्रकाशित है। अध्येता को इन टिप्पणों से मूल का अर्थ अच्छी तरह लग जाता है और विषय सरलता से स्पष्ट हो जाता है। यशोविजय की टीका विद्वत्तापूर्ण और ज्ञानवर्द्धक है। यह भी स्वतन्त्र प्रकाशित है। अष्टसहस्री का प्रमाणशास्त्रीय आकलन:
अष्टसहस्री का प्रमाणशास्त्रीय आकलन उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना इसमें प्रतिपादित प्रमेयशास्त्र का है। भारतीय दर्शनों में प्रमाण पर सर्वाधिक चिन्तन एवं ऊहापोह हुआ है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि मनुष्य को अपने इष्ट-सुख, अनिष्ट-दुःख और उनके कारणों की जिज्ञासा होती है।
६. श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्त्रसंख्यानैः । विज्ञायते ययैव स्वसमय-परसमयसद्भावः ।।
-अष्ट स.पृ. १५७, परिच्छेद २, आरम्भ। ७. विद्यानन्द को यह नाम इतना प्रिय रहा कि सभी परिच्छेदों के आरम्भ में इसी नाम से अपनी इस यशस्वी व्याख्या की गरिमा को प्रकट किया है।
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