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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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यह जिज्ञासा उसे जन्म से लेकर मरण तक बनी रहती है। इतना ही नहीं, उसे जन्म क्यों लेना पड़ता है और मरण क्यों होता है? इसको जानने की भी बलवती इच्छा उसमें समायी रहती है। इस जिज्ञासा और इच्छा ने ही प्रमाण को खोज निकाला है और उसे एक कसौटी के रूप में मान लिया गया है। उत्तरकाल में प्रमाण के चिन्तन में विकास होता गया। फलतः भारतीय दार्शनिकों ने उस पर संख्याबद्ध (विफलराशि में) ग्रन्थ लिखे हैं। लगता है कि जहाँ आत्मा, संसार और मोक्ष विचार के केन्द्र बने वहाँ प्रमाणशास्त्र भी एक ऊहापोह का विषय बना, क्योंकि वह उनके विचार का साधन है।
जैन दर्शन भी उसके विचार से अछूता नहीं रहा और वह रह भी नहीं सकता था। वह मनुष्य के चरमोत्कर्ष को प्राप्त अनुभव को स्वीकार करता है और उसे ही मुख्य साधन मानता है। जैन मोक्षमार्ग में त्रिरत्नों का समावेश है। इस त्रिरत्न में उसके मध्य में सम्यग्ज्ञान देहली-दीप न्याय से सम्यक्दर्शन
और सम्यक् चारित्र दोनों का प्रकाशक तथा संग्राहक है। अतएव जैन दार्शनिकों ने सम्यग्ज्ञान को प्रमाण माना और उसका विस्तृत एवं विशद विश्लेषणात्मक विवेचन किया है।
___ इस दिशा में सर्वप्रथम प्रयत्न आचार्य गृद्धपिच्छ (९वीं शती) ने किया है। उन्होंने संस्कृत भाषा में निबद्ध आद्य सूत्र ग्रन्थ तत्त्वार्थ सूत्र में जहाँ सिद्धांत का निरूपण किया वहाँ दर्शन और न्याय को भी सूत्र बद्ध किया है। आगम में वर्णित मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल इन पाँच ज्ञान को सम्यग्ज्ञान तथा उसे ही प्रमाण कहकर उसके उन्होंने दो भेद प्रतिपादित किये-१. परोक्ष और २. प्रत्यक्ष । इन्द्रिय व मन सापेक्ष ज्ञान को परोक्ष कहकर उल्लिखित ज्ञानों में आदि के मति और श्रुत इन दो को उसके भेद बतलाये और इन्द्रिय व मन निरपेक्ष अवधि, मनः पर्यय तथा केवल इन तीन शेष ज्ञानों को उन्होंने प्रत्यक्ष कहा। इसके साथ ही स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान) चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध (अनुमान) इन परापेक्ष ज्ञानों को गति के ही अवान्तरभेद बतलाकर उन्हें भी परोक्ष में समावेश कर लिया इसके अतिरिक्त उनकी दृष्टि सम्यग्ज्ञान की तरह मिथ्याज्ञान को भी बताने की ओर गयी
और उन्होंने मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों को विपर्यय (मिथ्या) प्रमाणाभास भी निरूपित किया। इसका उन्होंने कारण भी बताया। कहा कि ये तीन ज्ञान सम्यक्निमित्त मिलने पर सम्यक् (यथार्थ प्रतिपत्ति कराने वाले) होते हैं और दोषपूर्ण निमित्त मिलने पर मिथ्या (अयथार्थ प्रतिपत्ति कराने वाले) भी होते हैं। उन्मत्त पुरुष का उदाहरण देते हुए कहा है कि जैसे मद्यादि का नशा करने वाला या विकृत मस्तिष्क वाला व्यक्ति अपनी भार्या को माता कहता है और कभी भार्या ही कहता है। पर उसका यह कथन सम्यक् नहीं माना जाता है। उसी प्रकार ये तीन ज्ञान भी मिथ्या निमित्त मिलने पर यथार्थप्रतिपत्ति नहीं कराते। उस स्थिति में इन्हें प्रमाणाभास कहा गया है।
आ. गृद्धपिच्छ में वस्तु प्रतिपत्ति के लिए जहाँ प्रमाण का साधन रूप में वर्णन किया है वहाँ नय को भी वस्तु धर्मों की प्रतिपत्ति का एक सबल साधन निरूपित किया।
___ "अभिनिबोध" ज्ञान द्वारा उन्होंने अनुमान का भी संग्रह किया है, जिसका प्रयोग उनके तत्त्वार्थ सूत्र में अनेक स्थलों पर हुआ है। उसका एक उदाहरण है अनुमान द्वारा मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन की सिद्धि करना । यथा
१. पक्ष- तदनन्तरं (मुक्तः) ऊर्ध्व गच्छत्यालोकान्तात्। २. हेतु-पूर्व प्रयोगात्, असंगत्वात्, बन्धच्छेदात्, तथागतिपरिणामाच्च । ३. उदाहरण-आविद्धकुलालचक्रवत्, व्यपगतलेपालाबूवत् एरण्डबीजवत्, अग्निशिखावच्च ।।
यहाँ अनुमान के तीन अवयवों-पक्ष, हेतु और उदाहरण द्वारा मुक्त जीव का ऊर्ध्वगमन सिद्ध किया गया है। प्राचीन समय में इन्हीं तीन अवयवों से अनुमान सम्पन्न होता था। "उत्तरकाल में दो ही (पक्ष और हेतु) अवयव आवश्यक माने जाने लगे। उदाहरण को निकाला दिया गया और उसे मात्र अव्युत्पत्रों के लिए सार्थक मान गया। इससे प्रकट है कि दर्शन और न्याय का तत्त्वार्थसूत्रकार के काल (पहली शती) से विकसित होना प्रारंभ हो गया था। उनके मार्ग पर चलकर समन्तभद्र स्वामी ने आप्तमीमांसा में उनका पर्याप्त विकास किया। समन्तभद्र के उत्तरकालीन आ. अकलंकदेव को नहीं भुलाया जा सकता, जो जैन दर्शन और जैन न्याय के प्रतिष्ठाता कहे जाते हैं। अष्टशती, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, लघीयस्त्रय, तत्त्वार्थवार्तिक जैसे अनुपमेय दर्शन एवं न्याय के ग्रन्थों की रचना करके उनसे जैन वाङ्मय को उन्होंने समृद्ध एवं ज्योतिर्मय बना दिया।
आचार्य विद्यानन्द ने अष्टसहस्री में मूलानुसार प्रथमतः प्रमेय का विस्तारपूर्वक कथन किया और उसके अनन्तर आप्तमीमांसा कारिका १०१वीं की व्याख्या करते हुए तत्त्वज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहकर मूलकार द्वारा अभिहित प्रमाण के अक्रमभावि और क्रमभावि इन दो भेदों को अपनाते हुए भी तत्तवार्थसूत्र ८. मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानिज्ञानम्" "तत्प्रमाणे, "आद्येपरोक्षम्" प्रत्यक्षमन्यत्-त.सू. १-९, १०, ११, १२ ९. "मतिःस्मृतिःसंज्ञा चिन्ताभिनिबोधइत्यनान्तरम्
तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्, -त.सू. १-१३, १४ । १०. मतिश्रुतावधयोविपर्ययश्च" "सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धरुन्मत्तवत्" त.स. १-३१, ३२, ११. "प्रमाणनयरधिगमः", -त.सू. १-६,
नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रश ब्दसमभिरूद्वैवंभूतानयाः -वही १-३३, १२. त. सू. १-१३, १३. वही १-३१, ३२
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