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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
ortionality is known as Hubble's constant after the name of the discover of this law. But to our surprise, some 'one recently calculated a much different value of Hubble's constant. Where does then the beauty of its constancy lie? Moverover, Heisenberg's Principle of uncertainty is the most scientific principle of modem science. The more we discover, the more we approach the mataphysical stage of knowledge about modern science. Thus it is worthy of note that the apparently metaphysical description as given in jaina Bhugola must not disappoint us, rather we should eulogize the intuitive approach of Jainacharyas. Now it is a big challenge before us to understand the rationale of dimensions of the three lokas spread over 343 cubical Raju. Will the glaxies stop receding away beyond this limit and then return whereby Hubble's law will begin to fail and cease to work? This is a big task ahead as how to understand the limitedness of the cosmos implied in the concept of dimensions of three lokas.
Pujya Mataji has initiated a strenuous task in unraveiling the mysteries of Jaina Geography. The work 'Jaina Bhugola' serves a great food for the academic world of science. However, Jaina terminology and symboligical representations have to be properly decoded in relation to time and space. An interdiscipilinary approach has to be adopted, of course. Such studies will not only benefit the material science but also the world of spiritual flights. Here it is worth mentioning that Pujya Mataji has paved the way to understand Jaina Geography by erecting the Holy mount meru placed at the centre of jambudvipa at the holy land of Hastinapur. Such an endeavour is a landmarking step in this direction.
The book is printed nicely with a fine get-up. Everyone must possess this jewel. A layman can eulogise the fineness and precision of Jaina thinkers. A scholar gets an ample food for thought for furthering the cause of understanding the deep secrets of not Jainsim alone but also the mysteries of modern scinence growing metaphysically day-by-day. May her Holiness bless us for further exploration in this field!
ज्ञानामृत
समीक्षक-डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर।
नकिशोध संस्थान
'ज्ञानामृत' यथा नाम तथा गुण है, इसमें ज्ञानरूपी अमृत भरा हुआ है। पौराणिक वैदिक परंपरा की कथा है कि समुद्र मंथन से अमृत निकला था, इसी काल्पनिकता के आधार पर इस ग्रंथ के प्रणयन के समय आर्यिका ज्ञानमती ने इसे अर्हन्तदेव के वचन समुद्र से निकला हुआ मानकर मङ्गलाचरण में इसकी महिमा का यशोगान किया
अर्हन्तदेव को नित्य नमूं, जिनके वचनाम्बुधि मंथन से। निकला यह 'ज्ञानामृत' सुमधुर तुम पियो इसे मन अंजलि से॥ यह सूक्ति सुधा निर्झरिणी है, परम्भनंदामृत भर देगा।
आत्मा को परम शुद्ध करके यह सिद्धिधाम में धर देगा ॥१॥ आत्मा का परम हित मोक्ष है। यह ऐसा अमृत है जो मोक्षधाम में रखने की सामर्थ्य से युक्त है। इसमें महामंत्र णमोकार के अर्थ से लेकर शांति भक्तिपर्यन्त पच्चीस विषय हैं। ये विषय एक-दूसरे से संबंधित न
होकर अपने आपमें स्वतंत्र हैं। इन सबके लेखन का आधार आगम ग्रंथ है। १. णमोकार मंत्र का अर्थ-णमोकार मंत्र जैनों का मूलमंत्र है। यह समस्त पापों का विनाश करने वाला है। समस्त मङ्गलों में आद्य मंगल है। अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु शब्दों की व्युत्पत्ति देते हुए, इसके स्वर और व्यंजनों की संख्या ६४ बतलाई गई है। उक्त चौंसठ अक्षरों का विरलन करके प्रत्येक के ऊपर दो का अंक देकर परस्पर सम्पूर्ण दो के अंकों का गुणा करने से लब्धराशि में एक घटा देने से जो प्रमाण रहता है, उतने ही श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं। २. गृहस्थ धर्म-समस्त श्रावकाचारों में सागर धर्मामृत का विशिष्ट स्थान है। यह श्रावकाचारों का निचोड़ है। इसके आधार पर आर्यिकारत्न ज्ञानमती ने ज्ञानामृत में गृहस्थ धर्म का प्रतिपादन किया है। जो स्त्री. पुत्र. धन आदि के मोह से ग्रसित हैं, वे सागार या गृहस्थ कहलाते हैं। यहाँ श्रावक के पाक्षिक,
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