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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४३१ नैष्ठिक और साधक भेद किए गए हैं तथा अष्ट मूल गुणों का वर्णन कर दान तथा उसके भेदों को स्पष्ट किया गया है। अन्य स्थानों पर आहारदान, औषधि दान, अभयदान और ज्ञानदान, दान के ये चार भेद निरूपित हैं। यहाँ पात्रदत्ति, समदत्ति, दयादत्ति और अन्वयदत्ति इस प्रकार चार भेद किए गए हैं। सत्कन्या दान की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उत्तम कन्या को देने वाले साधर्मी गृहस्थ के लिए तीनों वर्ग सहित गृहस्थाश्रम ही दिया है, क्योंकि विद्वान् लोग गृहिणी को ही घर कहते हैं, दीवाल और वासादि के समूह को घर नहीं कहते हैं। गृहस्थों के छह आर्यकर्म होते हैं-इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप। प्रारंभ में चार आश्रम वैदिकों के यहाँ माने जाते थे। यहाँ चारित्रसार के आधार पर ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुकाश्रम या संन्यस्त आश्रम इन चार भेदों का विश्लेषण किया गया है। ३. सम्यक्त्वसार-आचार्य समन्तभद्र ने कहा है कि तीन लोक और तीन काल में सम्यक्त्व के समान कोई वस्तु सुखदायी नहीं है। इस सम्यग्दर्शन के आत्मानुशासन में दस भेद कहे गए हैं-आज्ञा समुद्भव, मार्ग समुद्भव, उपदेश समुद्भव, सूत्र समुद्भव, बीज समुद्भव, संक्षेप समुद्भव, विस्तार समुद्भव, अर्थ समुद्भव, अवगाढ़ और परमावगाढ़। चौथे, पाँचवें और छठे गुणस्थान तक व्यवहार सम्यक्त्व ही होता है। इसके आगे रत्नत्रय की एकाग्र परिणति में निश्चय सम्यक्त्व होता है, उसे वीतराग सम्यक्त्व भी कहते हैं। निश्चय नय से निश्चय चारित्र के बिना न होने वाला निश्चय सम्यक्त्व ही वीतराग सम्यक्त्व कहलाता है, जो कि शुद्धोपयोगी मुनियों के होता है। उसके पहले के सम्यक्त्व का नाम सराग सम्यक्त्व या व्यवहार सम्यक्त्व है। ४. चारित्रप्राभृतसार-इसका आधार आचार्य कुंदकुंद का षट्प्राभृत तथा उसकी श्रुतसागरी टीका है। चारित्र के भेद हैं-(१) सम्यक्त्वचरण चारित्र और संयमचरण चारित्र । इनमें से यहाँ सम्यक्त्वचरण चारित्र का अच्छा प्रतिपादन है। ५. बोध प्राभृतसार-इसके प्रतिपादन में आचार्य कुंदकुंदकृत बोधपाहुड़ की श्रुतसागरी टीका तथा आदिपुराण का सहारा लिया गया है। इसमें इन ग्यारह महत्त्वपूर्ण स्थानों का प्रतिपादन है-१. आयतन, २. चैत्यग्रह, ३. जिनप्रतिमा, ४. दर्शन, ५. जिनबिम्ब, ६. जिनमुद्रा, ७. ज्ञान, ८. देव, ९. तीर्थ, १०. अरहंत और ११. प्रव्रज्या। जिनमुद्रा के प्रसंग में कहा गया है कि मुनियों का आकार जिनमुद्रा है और ब्रह्मचारियों का आकार चक्रवर्ती मुद्रा है। ये दोनों ही मुद्रायें माननीय हैं—पद के अनुकूल आदर के योग्य हैं। ६. उपासक धर्म-इस विषय का आधार पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका है। इसमें षट्कर्म, सात व्यसन, आठमूल गुण, बारहव्रत तथा अनुप्रेक्षाओं का वर्णन है। ७. दान-इस विषय का आधार पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका है। यहाँ भगवान ऋषभदेव और कुरुवंशी राजा श्रेयांसकुमार को क्रमशः व्रत और दान रूप दो तीर्थों का आविर्भावक माना गया है। दान की महिमा के प्रसंग में कहा गया है कि जिसके क्रोधादि विकार भाव विद्यमान हैं, वह क्या देव हो सकता है? जिस धर्म में प्राणियों की दया प्रधान नहीं है, वह क्या धर्म कहा जा सकता है? जिसमें सम्यग्ज्ञान नहीं, क्या वह तप और गुरु हो सकता है तथा जिस सम्पत्ति में से पात्रों के लिए दान नहीं दिया जाता है, वह सम्पत्ति क्या सफल हो सकती है? अर्थात् नहीं। यहाँ पात्र के उत्तम, मध्यम और जघन्य तीन भेद किए गए हैं। ८. समयसार का सार-यहाँ समयसार के सार को निश्चय और व्यवहार उभयनय के आश्रित प्रतिपादित किया गया है। आचार्य अमृतचन्द्र और जपसेन दोनों आचार्यों का आशय एक ही है, वास्तव में दोनों में कोई भेद नहीं है, इस बात का भी यहाँ स्पष्टीकरण है। ९. सप्तपरम स्थान-सज्जाति, सद्गृहस्थता, पारिव्राज्य, सुरेन्द्रपद, साम्राज्य, अरहंतपद और निर्वाण पद ये सात परम स्थान हैं । इनका विवेचन आदिपुराण के अनुसार किया गया है। दीक्षा धारण करने योग्य उत्तम वंश में विशुद्ध जन्म धारण करने वाले मनुष्य के सज्जाति परमस्थान होता है। पिता के वंश की जो शुद्धि होती है, उसे कुल और माता के वंश की शुद्धि जाति कहलाती है। कुल और जाति इन दोनों की विशुद्धि को सजाति कहते हैं। इस सजाति के प्राप्त होने पर बिना प्रयत्न के सहज ही प्राप्त हुए गुणों से रत्नत्रय की प्राप्ति सुलभ हो जाती है। लेखिका के अनुसार जितने भी सिद्ध हुए हैं, होते हैं और होंगे, उन सबने प्रथम स्थान सज्जाति, तृतीय स्थान पारिव्राज्य और छठे स्थान आर्हन्त्य को अवश्य ही प्राप्त किया है। १०. सुदं मे आउस्संतो-गौतम स्वामी का कहना है कि हे आयुष्मान्! मैंने भगवान् के मुख से गृहस्थ धर्म सुना है। इसी गृहस्थ धर्म का यहाँ प्रतिपादन है। इसमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत देववंदना तथा सल्लेखना का वर्णन किया गया है। यहाँ यह कहा गया है वस्त्रधारी क्षुल्लक, ऐलक आदि जो कि संयमासंयम को धारण करने वाले पंचम गुणस्थानवर्ती है, ये सोलह स्वर्ग के ऊपर नहीं जा सकते हैं। इन कल्पों के ऊपर दिगम्बर मुनि ही जा सकते हैं। भले ही कोई द्रव्यलिङ्गी ही क्यों न हो, वह भी अंतिम ग्रैवेयक तक जाने की योग्यता रखते हैं। ११. गतियों से आने-जाने के द्वार-इस विषय का प्रतिपादन चौबीस दंडक नाम के लघु प्रकरण से तथा त्रिपोकसार और तिलोयपण्णत्ति से किया गया है। एक-एक गति से आने के और जाने के कितने द्वार हैं, इसकी इसमें जानकारी दी गई है। १२.जीव के स्वतत्त्व-औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक और पारिणामिक ये जीव के स्वतत्त्व अर्थात् स्वभाव हैं। इनका विश्लेषण यहाँ तत्त्वार्थवार्तिक के आधार पर किया गया है। १३. द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञान का विषय-श्रुतज्ञान के भेद-प्रभेदों पर धवला तत्त्वार्थभाष्य आदि ग्रंथों के आधार पर प्रकाश डाला गया है। १४. श्रुतपञ्चमी-ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को श्रुतपञ्चमी पर्व मनाया जाता है। इस पर्व के इतिहास पर धवला तथा इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार के आधार पर वर्णन किया गया है। १५. पंचकल्याणक-तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण कल्याणकों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकरण में है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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