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________________ ५००] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला पुरुदेव नाटक समीक्षिका-श्रीमती रूबी जैन, १२६७/३४-सी, चण्डीगढ़। TUI विद्वत्शिरोमणि सिद्धहस्त लेखिका, ज्ञान की सरिता, सरस्वतीपुत्री गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित "पुरुदेव नाटक" भरत, वामन, कालिदास से चली आ रही नाट्य परम्परा का निर्वाह करता है। पुरुदेव नाटक तीन अंकों में है। नाटक का कथानक पौराणिक है और यह जैन पौराणिक चरित काव्यों की परिपाटी का निर्वाह करते हुए भगवान् ऋषभदेव के चरित के विभिन्न पहलुओं एवं तत्कालीन, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक दशाओं पर प्रकाश डालता है। नाटक का प्रारंभ मंगलाचरण से होता है। जिसमें सूत्रधार के द्वारा-"पुरुदेव नाटक" के शुभारम्भ की सूचना दी जाती है। सर्वप्रथम इन्द्र अयोध्या आकर भगवान् ऋषभदेव के गर्भ-कल्याणक महोत्सव को मनाता है। वह भरतक्षेत्र में अयोध्या नगरी का निर्माण व नाभिराजा व मरुदेवी के सुन्दर महल का निर्माण करता है और माता की सेवा में श्री देवी आदि बहुत-सी देवियाँ नियुक्त कर स्वर्ग लोक चला जाता है। गर्भ कल्याणक के ९ माह पश्चात् भगवान् का जन्मकल्याणक अयोध्या आकर मनाता है। इन्द्र भगवान् को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर १००८ कलशों से प्रभु का अभिषेक कर ऋषभदेव व पुरुदेव दो नामों से अलंकृत करता है। ८३ लाख वर्ष पूर्व में आयु पूरी हो जाने पर नीलांजना के नृत्य को देखकर प्रभु को वैराग्य हो जाता है और वे वन में जाकर देवताओं के साथ जिनधर्म की दीक्षा धारण करते हैं। इन्द्र और सभी देवतागण प्रभु का दीक्षा कल्याणक मनाकर स्वर्ग लोक वापस चले जाते हैं। क्रमशः भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त होने पर भगवान् के समवसरण की रचना स्वयं इन्द्र देव करते हैं, जिसमें उनकी पुत्रियाँ ब्राह्मी तथा सुंदरी जिनधर्म की दीक्षा ग्रहण करती हैं। भरत, बाहूबली और सभी पुत्र समवसरण में जाते हैं। भरत को पुण्योदय से चक्ररत्न की प्राप्ति होती है और वे सम्पूर्ण पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर अयोध्या वापस आते हैं। उनके सभी भाई भरत के आधिपत्य को स्वीकार करते हैं, परन्तु बाहुबली एवं भरत के मध्य युद्ध छिड़ जाता है, लेकिन विजय श्री बाहुबली को प्राप्त होती है। तत्क्षण वैराग्य उत्पन्न होने पर बाहुबली मुनिदीक्षा धारण करते हैं और भरत चक्ररत्न सहित अयोध्या में प्रवेश करते हैं। अंततः ८४ लाख वर्ष की आयु पूर्ण हो जाने पर प्रभु को निर्वाण प्राप्त हो जाता है, इन्द्र प्रभु का मोक्षकल्याणक धूमधाम से मनाते हैं। पुरुदेव नाटक के अनुशीलन से पता चलता है तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक दशा बहुत अच्छी थी। राज्य में राजा सर्वोच्च था, उसकी राज्य कार्य में सहायता के लिए मंत्रीगण (अमात्य) होते थे। राज्य का उत्तराधिकारी ज्येष्ठ पुत्र होता था। समाज प्रायः तीन वर्षों में बंटा था-क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र । बाद में भरत ने 'ब्राह्मण' वर्ण की स्थापना की। मनुष्य चारों पुरुषार्थों व चारों आश्रमों का पालन करते थे। उस समय बहुपत्नी प्रथा थी। ऋषभदेव की यशस्वती व सुनन्दा दो रानियां थीं। उस समय समाज की आर्थिक दशा अच्छी थी। लोग धर्मपरायण थे व व्रत नियमों का पालन करते थे। लेखन शैलीपुरुदेव नाटक की शैली गवेषणात्मक है, कथानक यद्यपि पौराणिक एवं गंभीर है, परन्तु नाटक में सर्वत्र सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग किया है। वाक्य कहीं दुरूह तथा बहुत लम्बे नहीं हैं। पग-पग पर लिखित सुन्दर भजन नाटक में सरसता एवं सुंदरता प्रदान करते हैं। जैसे मणियों के पालने में आदि । भाषा यद्यपि संस्कृतनिष्ठ है, परन्तु सरल है। जैसे-- पुष्टिदेवी-का प्रेयसी विधेया? माता-करुणा दाक्षिण्यमपि मैत्री। नाटक का अंगीरस शांत है। नाटक में यमक, रूपक, अनुप्रास, विशेषोक्ति एवं अनुप्रास अलंकार की छटा दर्शनीय है। छन्दों का भी प्रचुर प्रयोग हुआ है। नाटक वैदर्भी रीति में लिखा है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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