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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५०१ - 'लेखिका की प्रतिभा सम्पन्नता'पुरुदेव नाटक' इस शीर्षक से ही लेखिका की प्रतिभा सम्पन्नता स्पष्ट झलकती है। नाटक में लिखित गीत आर्यिका श्री की काव्य प्रतिभा की सुंदर झलक प्रस्तुत करते हैं। लेखिका ने अपनी काव्य प्रतिभा के बल पर ही नीरस एवं गंभीर विषय को इतना रोचक बनाया है। 'पुरुदेव नाटक' के प्रदर्शन में कहीं पर कोई त्रुटि न हो जाए, इसके लिए पग-पग पर निर्देश दिए गए हैं। जैसे-दीक्षा के दृश्य के समय मंच पर अंधकार कर भगवान् का चित्र दिखाना चाहिए। नाटक का परिमाण यद्यपि बहुत विस्तृत नहीं है, परन्तु लेखिका के ज्योतिष, व्याकरण, अलंकार, छन्द, गणित एवं भौगोलिक ज्ञान का परिचय प्राप्त करते हैं। भौगोलिक ज्ञान जैसे-प्रथम अंक के सप्तम दृश्य हैं। प्रथम देव-भगवन्! इस मध्यलोक में कितने द्वीप हैं? - ऋषभदेव-पच्चीस कोड़ा-कोड़ी उद्धार पल्यों में जितने रोमखंड होते हैं, उतने ही द्वीप होते हैं। जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, घातकीखण्ड, कालोदधि, पुष्करद्वीप, पुष्कर समुद्र आदि। असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र । नाटक के प्रारम्भ में हस्तिनापुर निर्मित जम्बूद्वीप का परिचय बड़ी शालीनता से दिया है। गणित-देव-भगवन्! गणित विज्ञान के मूल में कितने भेद हैं? ऋषभदेव-आठ भेद हैं। गुणकर, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, चिति या संकलित और व्युत्कलित अर्थात् शेष इसी प्रकार व्याकरण आदि के भी पर्याप्त उदाहरण मिलते हैं। नाटक को पढ़कर लेखिका के ज्ञान का इतना विस्तृत क्षेत्र देखकर गागर में सागर वाली लोकोक्ति चरितार्थ होती है। धरती के देवता समीक्षिका-डॉ. नीलम जैन, देहरादून वस्तुस्थिति की परिचायक उपयोगी पुस्तकपरमपूज्या, ज्ञानागार, गुणनिधान, न्यायप्रभाकर, गणिनी वात्सल्यमयी आर्यिकाश्री ज्ञानमती माताजी के रूप-स्वरूप में अल्प-सी दिखाई देने वाली इस लघुकाय पुस्तिका में सम्पूर्ण विश्व को नंदनकानन बनाने का सिद्धान्त-बीज स्थापित किया है, स्वर्ग में देवताओं की उपस्थिति तो सर्वमान्य है, परन्तु इस दुःख, शोक, क्रोध, धरती के देवता वैर, घृणा, अहंकार, आतंक से जलते-झुलसते संसार में देवत्व-कल्पना ही प्रतीत होता है, पूज्या मातुश्री ने इस संसार को ही कर्मस्थली रण क्षेत्र बताते हुए कहा है-रे मानव! तू ही तो सर्वोपरि देवता है, अनन्त सुख का कोष है, इन्द्र के भी भोग तुच्छ हैं तेरे सुख के सम्मुख और जो नररत्न देख लेते हैं, अन्तर्निहित अपना वैभव, आत्म-सुख वे तो बन जाते हैं राही आत्मकल्याण के। सदावाही, शाश्वत शान्ति, स्थायी विभूति पर उन्हीं का तो अधिकार रहता है, किन्तु एक विधान और आचरण संहिता अथवा प्रायोगिक धरातल होता है, एक मापदंड होता है यह जानने और पहचानने का कि इस धरा के वे देवता, वे मानव शिरोमणि हैं कौन? कैसा रूप-स्वरूप होता है इनका? इन्हीं सबको व्याख्यायित करते हुए माताजी कहती हैं "जो महापुरुष पंचेन्द्रियों की इच्छा समाप्त करके सम्पूर्ण आरम्भ और परिग्रह का त्याग कर देते हैं, वे ही मुक्तिपथ के साधक होने से सच्चे साधु कहलाते हैं।" ऐसे ये नराभरण सभी वर्गों, सम्प्रदायों से परे होते हैं माताजी वेदों, उपनिषदों, कुरान, बाईबिल के उदाहरण देकर स्पष्ट करती हैं कि ऐसे पुरुषोत्तम दिगम्बर होते हैं और सभी एकमत से इस मुद्रा को ही महान् बताते हैं। अनेक पीर, पैगम्बर, देव, भले ही किसी भी जाति कुलोत्पन्न हों, परन्तु उन्होंने नग्न मुद्रा को ही पूज्य बतलाया है। ऐसे दिगम्बर साधु घोर परीषहों को शांति से सहते हैं, महाव्रतों का पालन करते हैं तथा एक निश्चित आचरण संहिता का मन-वचन-काय से पालन करते हैं। ___ धरा पर यदि कुछ सार है तो यही दिगम्बर मुद्रा जो पंचमहाव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह) पंच समिति (ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण एवं उत्सर्ग) पांच इंद्रिय निरोध, षट् आवश्यक, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, केशलोंच, स्थिति भोजन एवं एक भुक्त इन Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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