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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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सूक्ष्मतम सम्पूर्ण संक्षेप है। शरीर की दासता से मुक्त होकर ही इस सोपान पर चढ़ने का मार्ग प्रशस्त होता है। जो ब्रह्माण्ड में है, वह शरीर में और पिण्ड में है। जो ध्वनि प्रकम्पन ब्रह्माण्ड में समाये हैं, वैसे ही इस शरीर में प्रतिक्षण घटित होते रहते हैं।
आर्यिकाजी ने इस कथानक के माध्यम से जनमानस को संबोधित किया है कि भाई! जरा सोचो, "मैं शरीर से भिन्न हूँ, यह शरीर शरण योग्य नहीं है, यह तो दुःख रूप है। यह अनात्म है, अतः सम्यक्त्व भावना ही आत्मोत्थान देगी, शरीर से ऊपर ले जायेगी। हम सोचें कि इसमें क्या, कैसा भरा है? सात धातुओं (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र) के अलावा इसमें कुछ भी तो नहीं है। आश्चर्य है इन सात धातुओं का नाम लेते ही विरक्ति होती है, लेकिन सात धातुओं वाले का नाम लेते ही राग होता है। स्थिरता भेद विज्ञान से बनेगी। इसका अनुचिंतन जरूरी है। फलतः समता भाव और क्षमा भाव स्वतः होंगे, जो जैन चिंतन के मूक हैं।
रक्षाबंधन कथानक अकंपन महाराज और उनके संघ के सात सौ मुनियों का विशाल संघ है। उन पर राजा और मंत्री ने उपसर्ग किया। यह घटना उज्जयिनी नगर की है। हस्तिनापुर के महाराजा महापद्म और विष्णुकुमार महामुनि श्रुत कुमार सूरि के चरण सानिध्य में जिनेश्वरी दीक्षा ले लेते हैं और पद्म को राजगद्दी पर बैठा देते हैं। उनके मंत्री कपटी और दंभी हैं, वे फिर मुनिसंघ को अपने षड्यंत्र से पशुमेध यज्ञ में फंसा देते हैं। ऐसे समय में अकंपनाचार्य और संघ आगमानुसार संल्लेखना ग्रहण कर लेते हैं। इधर विष्णु कुमारजी को विक्रिया ऋद्धि सिद्धि हो जाती है। इस माध्यम से वे अवधिज्ञान से और सिद्धि से हस्तिनापुर पहुँचते हैं और अपने भाई पद्म को संबोधते हैं और वे मुनि संघ की रक्षा करते हैं। रक्षाबंधन उत्सव का यही तात्पर्य है।
बच्चे का जन्म क्रंदन से होता है, अर्थात् जन्मना हर संघर्ष के लिए क्रंदन हमारी नियति है, उससे उबर सकें, इसके लिए कठिन श्रम की अपेक्षा है। श्रम कमल है जन्म कीचड़ में, पत्ते गंदे पानी में, सौंदर्य बोधक पुष्प पानी के ऊपर, यही ऊपरी सतह क्रंदन और श्रम के बाद की स्थिति है हमारी सबकी। इस स्थिति को स्वीकार लें तो जीवन सहजता की ओर उन्मुख होगा। अपने जन्म की क्रंदन प्रक्रिया से लेकर शांति की दुर्गम तलाश तक और फिर संघर्ष के बाद कुसुमित कमल बन पा सकने की क्षमता को जानने के लिए हमें अपने भीतर जाना होगा, प्रेक्षा ध्यान के माध्यम से, फिर कठिन नहीं है यह सब समझना, यही आत्मशोधन का मार्ग है। आर्यिकाजी का तात्पर्य है कि जीवन में दीवारें आड़े आती हैं। एक दीवार अपने अंदर है, जो अपनेपन से साक्षात्कार नहीं होने देती, वही दीवार सबके अंदर है। जिन्होंने अपने अंदर की दीवार को गिराया है, वही बंधनमुक्त हुए हैं। उसी दीवार पर आघात करो। संसार से साक्षात्कार करने का एक मात्र मार्ग स्वयं से साक्षात्कार करना है। धैर्य हमारा संकल्प है।
मुनि विष्णुकुमार और अंकपन आचार्य के चरित्र से हमें शिक्षा मिलती है कि हम अन्याय, अंधकार-शोषण से समझौता न करें, सफलता के लिए वक्त के अतिरिक्त जो अन्य दो तत्त्व अनिवार्य होते हैं, वे हैं सतर्कता और शत्रु को चमत्कृत करने की क्षमता, मुनि संघ तो समता से स्वागत करते हैं, उन क्रूर आतताइयों का भी, क्योंकि उनने ही मुनियों के गुणों को उभारने-निखरने का अवसर प्रदान किया था, धन्य थी उनकी क्षमाशीलता। उनका कहना था संस्कारहीन शक्ति का गर्जन जब अपराध है तो शक्तिहीन संस्कार की घिघियाहट भी कम अपराध नहीं है। हम सबका यह सद्भाग्य है कि जिनके हम उत्तराधिकारी हैं, वे सब अतिवीर महावीर ही रहे हैं। अंधकार से लड़ने में समय और शक्ति और शब्द का अपव्यय न हो, क्योंकि लड़ना नकारात्मक है
और जो नकारात्मक है, वह न ऊर्ध्वमुख है और न अभिमुख। करना केवल यह है कि जहाँ एक दीप है, वहाँ दूसरा भी रखना है और जो एक मुख का उसे चार मुख का करना है। प्रकाश आवृत्त बढ़ा दें तो अंधकार की सीमाएं स्वतः संकुचित हो जायेंगी। प्रकाश को अंधकार से भय नहीं है, क्योंकि अंधेरे के विस्तार से या घनत्व से आज तक कोई दीप नहीं बुझा-यह बड़ा अटपटा सत्य है।
दीप जब भी बुझे हैं स्नेह तथा संरक्षण के अभाव में ही बुझे हैं। यह अभाव न रहे-इतनी जागरूकता जीवन का दायित्व भी है और उसकी अनिवार्यता भी है। रक्षाबंधन कथानक का यही मूल मंत्र है, जो आर्यिकाजी ने सहज शैली में निरूपित किया है।
इस प्रकार अनेक कथानकों को अपने में समेटे हुए यह "भक्ति" नामक पुस्तक आबाल-गोपाल के लिए उपयोगी है।
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