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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
कैसे भूलेगा वह बुधजन, जिसने पढ़ करके देखा है । जो ग्रंथ अभी तक थे दुर्गम, उनको अब सरल बनाया है; जिनका अनुवाद असम्भव था, पहले करके दिखलाया है ॥ १०२ ॥ श्री अष्टसहस्त्री परम ग्रंथ, मुक्ति का रहे प्रदाता है तम में, गम में डूबे जन को, आलोक सदा दिखलाता है। इसका अनुवाद "सरस" सुन्दर प्रतिभा ने जिसे निखारा है; संपूर्ण चेतना के द्वारा जिसका अस्तित्व निहारा है ॥ १०३ ॥
हर त्यागी - रागी बुधजन ने यह कहकर गौरव गाया है; जो शब्द कलम से निकल गया, वह चमत्कार बन छाया है। है आगम के अनुकूल, कहीं प्रतिकूल नहीं कुछ बोला है; पढ़कर के लगता गणधर ने, फिर से अपना मुख खोला है ॥ १०४ ॥ त्रिलोक भास्कर, न्यायसार, "सामायिक" जो हम पाते हैं; भगवन महावीर बने कैसे ? पढ़ करके दिल दहलाते हैं। "इतिहासिक तीर्थ हस्तिनापुर", सच्चा गौरव दर्शाता है; है ग्रन्थ समाधितंत्र मृत्यु से विजय हमें दिलवाता है ॥ १०५ ॥ है "जंबूद्वीप" परम सुन्दर, लख कर होती खुशहाली है; अनुवाद "द्रव्य संग्रह" अनुपम, "आत्मा की खोज" निराली है। है "बालविकास भाग" चारों जो बाल जागरण देते हैं: संयम की ओर बालकों को तत्काल मोड़ से लेते हैं ।। १०६ ॥ किस-किस के नाम गिनायें हम सब एक-एक से सुन्दर हैं; जिनमें हैं बीस ग्रंथ ऐसे, जो वीतराग के मन्दिर हैं । ये तम-गम में नंब जीवन दें, युग-युग के लिए धरोहर हैं;
हैं जितनी माता की कृतियाँ, सचमुच में ज्ञान सरोवर हैं ॥ १०७ ॥ इनमें हम गोते लगा, लगा, इस मन का मल धो सकते हैं; जिनके पावन पथ पर चलकर, हम जिनवर तक हो सकते हैं; हो ऐसा सम्यग्ज्ञान हमें, माया का जिसमें लेश न हो; ऐसा आचरण बने अपना, छल का जिसमें लवलेश न हो ॥ १०८ बस, इसीलिए प्रति माह पत्र, इक सम्यग्ज्ञान निकलता है; जिसमें सारा श्रम ज्ञानमती, माता का, किए सफलता है । यह सम्यग्दर्शन शन, और चारित्र साथ दर्शाता है। चारों अनुयोगों का इसमें क्रमशः दर्शन हो जाता है ॥ १०९ ॥ इनके सुन्दरतम गीतों के हर ओर रिकार्ड दिखाते हैं: जिनकी भाषा भावों पर प्रिय, हर श्रोता बलि-बलि जाते हैं। कविता की कोई विधा नहीं, जो छूट आप से जाती है।
वह कलम धन्य जिसकी, समानता सबमें सरस दिखाती है ॥ ११० ॥ प्रवचन का प्रिय पावन प्रवाह, जिस क्षण चालू हो जाता है; उतने क्षण तक मानव का मन, खुद ही में खुद खो जाता है। हर पंक्ति ज्ञान की गरिमा बन, अंतस का अलख जगाती है; आगम की ऐसी गहराई, विरलों में पायी जाती है ॥ १११ ॥ श्री माताजी के अधरों से जब छंद गूँज कर छाते हैं;
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