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न्याय प्रभाकर आर्यिकारत्न
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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
संगीत गीत दोनों का तब सम्मिलित आनन्द उठाते हैं। उस वीतराग की वीणा में ऐसे पावन स्वर होते है
माँ एक छंद बोला करती, सौ सुनने आतुर होते हैं ॥ ११२ ॥ क्या-क्या विशेषता माता की, यह तुच्छ दास दर्शाये अब; शबनम की लघुतम बूँदों ने, सागर के गुण गा पाये कब ? शिक्षण शिविरों को समय-समय पर, आप कराती रहती हैं; इस तरह सदा मानवता का इतिहास जगाती रहती हैं ॥ ११३ ॥ चल रहा आज जो धर्मयुद्ध, तर्कों के वाक्य प्रहारों से; विपरीत मान्यतायें जन्मीं कुछ तथाकथित होशियारों से। चारित्र हनन हो रहा यहाँ जीभर के चारों औरों से; माता मन ही मन चिंतित हैं, कुछ ऐसी कल्पित कोरों से ॥ ११४ ॥ उनका कहना हम ज्ञान रखें, लेकिन चारित्र न खो डालें;
आचरण छूट जाये जिससे, हम ऐसा बीज न बो डालें । चारित्रहीन यदि ज्ञान मिला तो बेड़ा पार नहीं होगा; केवल कोरी इन बातों से, जग का उद्धार नहीं होगा ॥ ११५ ॥
श्री ज्ञानमती माता द्वारा, जग ने प्रकाश जो पाया है; जिनकी वाणी ने प्राणी के अंतस का अलख जगाया है । उसका यश वर्णन चंद शब्द बोलो कैसे कर सकते हैं? शबनम की बूंदों के द्वारा, क्या सागर को भर सकते हैं ? ॥ ११६ ॥ फिर भी दीपक उस दिनकर का भक्तिवश गौरव गाता है; माता को मान मिला कितना, दिग्दर्शन जरा कराता है। था आठ दिसम्बर उन्नीस सौ सन सुनो, चौहत्तर की बेला
तव दिल्ली दरियागंज, बना था, सरस दीक्षा का मेला ॥ ११७ ॥
आचार्य धर्मसागर जी का, उस समय विशाल संघ ठहरा; वैराग राग के जीवन पर उस समय लगाए था प्रहरा । हर आँखों के आगे उस दिन लगती भौतिकता नंगी थी
संयम के सच्चे सागर में, हर देह उस समय चंगी थी ॥ ११८ ॥
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जब ज्ञानमती माता जी का ज्ञानामृत फैला जोरों से; उनके प्रवचन से डगर-डगर, जब जागी चारों औरों से ।
उस समय न केवल भक्त वर्ग, त्यागी दल हुआ प्रभावित था;
तब इन शब्दों से स्वयं, देशभूषण ने किया स्वागत था ॥ ११९ ॥ रह सका न मुनि का हृदय मौन, मन महामुनि का हर्षाया अड़तालीस संतों के समक्ष, उद्गार हृदय बाहर आया । श्री ज्ञानमती माता सचमुच, संयम की सच्ची माता हैं; यं सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र, तीनों की परम प्रदाता हैं ॥ १२० ॥ इनका दर्शन, इनका अर्चन, जग को सुख देनेवाला है; युग जाप करेगा युग-युग तक, ऐसी यह पावन माला है। इतिहास हो गया धन्य आज, अवलोक इस तरह महिमा है;
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