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________________ १२४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला लगभग २८-२९ वर्ष की उम्र होगी उस समय ज्ञानमती माताजी की, किन्तु अपने आर्यिका संघ की प्रधान होने के कारण उनकी अनुशासन कला बेजोड़ दिखती थी। उस छोटी सी आयु में भी उनके ज्ञान का खजाना सौ वर्षीय विद्वान् से भी अधिक बड़ा दिखता था। उस समय साधु समूह में प्रायः एकमात्र प्रवचन कला में प्रवीण ज्ञानमती माताजी थीं जिससे कलकत्ते का बच्चा-बच्चा प्रभावित एवं आकर्षित था। कलकत्ते के बाद भी मैं सदैव पूज्य माताजी के दर्शनार्थ अन्य स्थानों पर जाता रहा। प्रसन्नता तो तब द्विगुणित हो जाती है जब मेरे पहुंचते ही मुझे माताजी का पूर्ववत् वात्सल्य प्राप्त होता है तथा कई व्यक्तिगत चर्चाएं भी वे मुझसे करने लगती हैं। यह उनका मेरे प्रति वात्सल्य और विश्वास ही कहना होगा। आज तो पूज्य माताजी ने अपने चहुँमुखी कार्यकलापों से विश्व स्तरीय ख्याति प्राप्त कर ली है। उनका अभिवंदन ग्रन्थ निकालकर हम लोग मात्र एक औपचारिकता का ही निर्वाह कर रहे हैं, ऐसे कई अभिवन्दन ग्रन्थ भी यदि उनके चरणों में समर्पित कर दिए जाएं तो भी उनके ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द से लेकर आचार्य चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज की स्मृतियों को झलकाने वाली ज्ञानमती माताजी का मंगल सानिध्य जितने दिन तक संसार को मिलता रहेगा, उतने दिनों तक धरती माता की गोद साहित्यिक कृतियों से भरती चली जाएगी जो कि आगे आने वाली सदियों में हमारी अनमोल निधियाँ होंगी। पूज्य गणिनी आर्यिका श्री के चरणों में मैं अपनी सविनय प्रणामांजलि समर्पित करता हुआ जिनेन्द्र भगवान से यह प्रार्थना करता हूँ कि हमारी पूज्य माताजी सैकड़ों वर्षों तक हमें ज्ञानामृत पिलाती रहें। "पृथ्वी की भाँति सहनशील माताजी" -गणेशीलाल रानीवाला, कोटा कार्याध्यक्ष : दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान पृथ्वी की भाँति सहनशील,, क्षमावती, सुन्दर स्वभाव, सराहनीय शील, अनुपम प्रेम और अकथनीय वात्सल्यभाव के द्वारा प्राणिमात्र के प्रति कल्याणभाव आज माता ज्ञानमतीजी के पर्याय बन चुके हैं। न्याय, सिद्धान्त, भूगोल, खगोल और व्याकरण जैसे गहन-दुरुह विषयों पर अधिकारपूर्वक सारगर्भित लिखने के साथ-साथ ही माताजी ने भक्ति भावपूरित साहित्य के ग्रंथ भी हमको प्रदान किये हैं, जिनके अनुशीलन से मनः- प्राण भक्तिरस से आप्लावित हो जाते हैं और उस भावानुभूति में कुछ भी कह सकने में वाणी स्खलित हो जाती है। माताजी की अमोघ लेखिनी से प्रसूत साहित्य रस-धारा लोकमंगल की कामना से असंख्य पाठकों के हृदय को पवित्र करती हुई अपने चरम लक्ष्य-कल्याणकारी मोक्षार्णव में विलीन होती दृष्टिगत होती है। हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत-कनड़ आदि विभिन्न भाषाओं में पूर्वाचार्यों, साहित्य मनीषियों द्वारा प्रणीत जटिल ग्रंथों को माताजी ने अपनी भाव सुबोधिनी शैली और सरल भाषा में लोकोपयोगी बनाकर प्रस्तुत करके एक ऐसा उपकार किया है जो कभी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा और सम्पूर्ण मानवता उसके लिए सदा कृतज्ञ रहेगी। प्रत्येक श्रावक को नित्य, पूजा-पाठ, स्तोत्र पाठ, स्वाध्याय, तीर्थयात्रा आदि शुभोपयोग में अधिकाधिक नियोजित रहकर सम्यग्दृष्टि के द्वारा मोक्ष-मार्ग का अनुसरण करके अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधना सम्पन्न होना चाहिये। मानव पुरुषार्थ, शास्त्र विषयों में विश्वास और आचार्यपाद में श्रद्धा हो तो उस परम पद की प्राप्ति मनुष्य का अपना जन्मसिद्ध अधिकार है। उसे कोई रोक नहीं सकता। माताजी इन्हीं सारगर्भित उपदेशों द्वारा लोगों का उद्बोधन करती हुई सचेष्ट रहकर अपनी तपश्चर्या और साहित्य साधना में निमग्न रहती हैं। तपश्चर्या से पूत उनका शरीर अपने अध्यात्म के तेज और आत्मबल से अग्निशिखा की भाँति सदा प्रकाशमान रहता है और मुख मण्डल पर उभरा स्मित श्रद्धालुओं को स्वतः नमन के लिए आकर्षित करता रहता है। हस्तिनापुर में उनके सानिध्य में सम्पन्न स्वाध्याय के अनेक अवसरों पर उपस्थित रहने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वहाँ वे अपनी उपस्थिति और शास्त्र सम्मत ओजिस्विनी वाणी में महानुभावों की जटिल शंकाओं का समाधान अनायास ही जिस सरलता से कर देती हैं उनको देख, सुनकर विस्मय होता है और मन को बड़ी शान्ति मिलती है। आगम शास्त्रों का इतनी सूक्ष्मदृष्टि से विवेचन, मंथन पूर्वाचार्यों की सम्मतियों से सामञ्जस्य और युक्तियों से युक्त उनके वाक्य निर्णायक होते हैं। माताजी की महिमा सागर का पार पाने के लिए मेरी लघुमति असहाय बालक की भाँति तीर पर खड़े होकर अनन्त अथाह जलराशि को Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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