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________________ ७०२] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला डा. अनुपम माताजी आपके द्वारा रचित "दिगंबर मुनि", "आराधना" और "आर्यिका" ये तीनों पुस्तकें साधुओं के लिए संहिताशास्त्र है। बड़े-बड़े ग्रंथों के साररूप हैं। अतः मेरी समझ में तो इन्हें सभी साधुवर्गों को अवश्य पढ़ना ही चाहिए तथा विद्वानों को भी पढ़ना चाहिए। हां, "दिगंबर मुनि" पुस्तक में तो मैंने तृतीय खंड में सामयिक अनेक प्रश्नों को रखकर आगम के आधार से उनके उत्तर दिये हैं। अतः साधु वर्गों के साथ विद्वानों और श्रावकों के लिए भी पठनीय है। इसमें मेरा तो क्या है, केवल आगम के ही उद्धरण संकलित हैं। पूज्य माताजी! आज आपसे मूलाचार ग्रंथ के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त कर बहुत ही प्रसन्नता हुई । आपके ही चरणों में वंदामि। संपादक मंडल सम्पादक मण्डल की पूज्य माताजी से एक सामयिक चर्चा १४ मई १९९२ लेखक-डा० श्रेयांस जैन, बड़ौत श्रेयांस कुमार वंदामि माताजी! माताजी सद्धर्मवृद्धिरस्तु। श्रेयांस कुमार- माताजी! आपका अधिकांश समय जंबूद्वीप पर ही क्यों व्यतीत होता है? क्षु. मोतीसागर- अभी सन् १९९१ का चातुर्मास तो सरधना हुआ था। इससे पहले भी सन् ८९ में शीतकाल के चार महीने तक माताजी ने बड़ौत, मोदीनगर, मेरठ आदि नगरों में बिहार किया था। श्रेयांस कुमार इसीलिये तो मैंने अधिकांश शब्द का प्रयोग किया है। माताजी बात यह है कि सन् १९८२ तक तो हस्तिनापुर, दिल्ली, खतौली, मुजफ्फरनगर आदि में बिहार होता रहता था। सन् ८३ से आर्यिका रत्नमती माताजी का स्वास्थ्य विहार के लायक नहीं रहा था। पुनः १९८५-८६ की लंबी बीमारी के बाद मेरा भी शरीर स्वास्थ्य अब अधिक विहार के योग्य नहीं है। सन् १९८९ में हिम्मत भी किया तो पदविहार से सरधना में स्वास्थ्य पुनः बिगड़ गया। तब मुझे सभी के आग्रह से जबरदस्ती डोली में बैठकर बिहार करना पड़ा। अनुपम माताजी! आपने तो दिगंबर मुनि पुस्तक में मुनियों को डोली में बैठने के लिये आगम का प्रमाण दिया है। माताजी हां, प्रायश्चित ग्रंथ में लिखा है- "डोली आदि में बैठकर गमन करने पर आचार्य उस मंद, रोगी आदि साधु को जानकर उसके दोष को दूर करने वाली मार्गशुद्धि से दूनी शुद्धि दें। अर्थात् मार्ग गमन का जो सामान्य प्रायश्चित है, डोली पर बैठने से उससे दूना प्रायश्चित्त देवें।" सन् १९५७ में आ. शिवसागर जी महाराज के संघ में गिरनार क्षेत्र यात्रा के प्रसंग में आर्यिकायें डोली में बैठती थीं। आचार्य संघ में मुनि भा डोली में बैठे हैं। सभी संघों में अस्वस्थता के प्रसंग में आचार्य, मुनि, आर्यिकायें, डोली में बैठते हैं। इसमें कोई दोष नहीं है फिर भी मेरी इच्छा इस तरह बिहार करने की कम रहती है। दूसरी बात यह है कि तीर्थक्षेत्र पर एक स्थान में अधिक दिन रहना विरुद्ध भी नहीं है । चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी ने कुंभोज (दक्षिण) में मुनि श्री समंतभद्र महाराज के लिये वहीं क्षेत्र पर रहने की और भगवान् बाहुबली की मूर्ति विराजमान कराने की प्रेरणा भी दी थी। देखिये एक प्रशस्त विकल्पवर्षों से एक प्रशस्त संकल्प चित्त में था। जैसे मां के पेट में बच्चा हो। यह करुणा कोमल चित्त की उद्भट चेतना थी। महाराष्ट्र की जैन जनता प्रायः कास्तकार (किसान) है धर्मविषयक अज्ञान की भी उनमें बहुलता है। आचार्य श्री का समाज के मानस का गहरा अध्ययन तो अनुभूति पर आधारित था ही। “शास्त्रज्ञान और तत्त्वविचार" की ओर इनका मुड़ना बहुत ही कठिन है। प्रथमानुयोगी जन-मानस के लिए एक भगवान का दर्शन ही अच्छा निमित्त हो सकता है। इसी उद्देश्य को लेकर किसी अच्छे स्थान पर विशालकाय श्री बाहुबली भगवान की विशालमूर्ति कम से कम २५ फीट की खड़ी कराने का प्रशस्त विकल्प जहां कहीं भी आचार्यश्री पहुँचते थे, प्रकट करते थे। परन्तु सिलसिला बैठा नहीं। "भावावश्यं भवेदेव न हि केनापि रुध्यते" । होनहार होकर ही रहती है। योगायोग से इसी समय अतिशय क्षेत्र बाहुबली (कुंभोज) में वार्षिकोत्सव होने वाला था। "सम्भव है सत्य संकल्प की पूर्ति हो जाय" इसी सदाशय से आचार्यश्री के चरण बाहुबली की ओर यकायक Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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