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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ संयम की अनमोल शिक्षिका शिखरचंद जैन-हापुड़ सरस्वती एवं वात्सल्य की पावन मूर्ति करुणामयी माताजी के सम्पर्क में आने से पूर्व मैं एक अनगढ़ पत्थर था मेरे संयमित जीवन का अंकुरारोपण हुआ वात्सल्यमयी माताजी के मार्मिक अमृतमयी उद्बोधनों को सुनकर। माताजी अपने प्रवचन में मनुष्य जन्म की दुर्लभता एवं देवों को भी दुर्लभ संयम की महत्ता पर प्रकाश डाल रही थीं। वैज्ञानिक एवं तर्कपूर्ण शैली से मैं अत्यन्त प्रभावित हुआ। मुझे ऐसा लगा कि अंधकारमय जीवन से निकलकर स्वर्णिम सुखद प्रभात मेरी प्रतीक्षा कर रहा है । माताजी के श्री चरणों में बैठकर कई विधानों में सम्मिलित होकर अपूर्व भक्ति रस का भी आनन्द प्राप्त किया। इसी श्रृंखला में उत्तरोत्तर चारित्रिक विकास होता गया और पूज्य माताजी से ही दो प्रतिमा ग्रहण कर श्रावक धर्म के सोपान पर कदम रखा। माताजी के पुत्रवत् स्नेह के कारण जब भी अवकाश मिला, रमणीय अलौकिक जम्बूद्वीप की रचना और पूज्य माताजी के दर्शनों का लोभ संवरण नहीं कर सका। आध्यात्मिकता में अपूर्व रस आने लगा - परिणामस्वरूप माताजी से ही सप्तम प्रतिमा ग्रहण कर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया । अब भी माताजी से यही प्रार्थना है कि मेरा और आत्मिक विकास हो एवं महाव्रत अंगीकार कर क्रमशः सांसारिक दुःखों से छुटकारा प्राप्त हो। जिनेन्द्र देव से यही प्रार्थना है कि माताजी को दीर्घायुष्य प्रदान करें, माताजी की कीर्ति पताका एवं धर्मध्वजा सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित हो यही मंगलकामना है। Jain Educationa International कथनी और करनी की संगम रूप ज्ञानमूर्ति [१४३ श्रीनिवास बड़जात्या, मद्रास यह परम हर्ष का विषय है कि दिगम्बर जैन समाज आर्यिकारत्न पूज्य १०५ ज्ञानमती माताजी के कर कमलों में हृदय संभूत वचन पुष्पों से सुरभित अभिवन्दन-ग्रंथ समर्पित कर अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने जा रहा है। पूज्य माताजी स्वनाम धन्य ज्ञानमूर्ति हैं। आप संस्कृति, प्राकृत एवं हिन्दी की प्रकाण्ड विदुषी हैं वे जैन दर्शन के चारों अनुयोगों का अगाधज्ञान प्राप्त त्यागमूर्ति हैं। इसी सत्यता आपके द्वारा प्रकाशित शताधिक चारों अनुयोगों के ग्रंथों से विदित होती है। इन ग्रंथों की विशेषता यह है कि प्रतिपाद्य विषयों में मात्र सरलता, स्पष्टता एवं दुड़ता ही नहीं, वरन् पूर्वाचार्य परम्परागत आगम पक्ष के सुदृढ़ समर्थन की झलक भी विद्यमान है। 1 वर्तमान में धर्म एवं सुज्ञान की प्राप्ति त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी मुनिराजों तथा आर्यिकाओं द्वारा ही संभव है। अन्य कोई साधन इस पंचमकाल में उपलब्ध नहीं है। इन त्याग, तपस्वियों में ही कथनी और करनी का संगम है। यह भी सच है कि धर्म कोई मूर्तिमान वस्तु नहीं, जिसे धर्मात्माओं से भिन्न देखा जा सके। इसीलिए आचार्य समन्तभद्र ने "न धर्मो धार्मिकैर्विना" कहा है। इसी से स्पष्ट है कि त्यागीवृन्द चलते-फिरते जिन हैं । सम्यक्दर्शन की प्राप्ति में प्रधान कारण देव शास्त्र गुरु हैं। पहला साधन तो वर्तमान में असंभव है। शास्त्र ज्ञान भी उन्हीं गुरुओं से संभव है, जो ज्ञानाराधना में सतत तत्पर हैं, क्योंकि वे ज्ञानी, तपस्वी ही वर्तमान में " वपुषा मोक्ष मार्ग" को दर्शाने वाले हैं। निष्कर्ष यह है कि हमारी जैसी सामान्य जनता के लिए गुरु ही सब कुछ हैं । कथनी और करनी की संगमरूप ज्ञानमूर्ति पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी का अभिनंदन, विनयांजलि या कृतज्ञता प्रकट करने के लिए शब्द वर्णन परिणत वचनों के अलावा और कोई वस्तु हमारे पास है भी क्या ? निस्पृह त्यागी के लिए चाहिए भी क्या ? स्पष्ट कहना हो तो यह वचनबद्ध विनयांजलि भी उन महान् आत्माओं के लिए भार रूप है। 1 ध्यान रहे कि सच्ची विनयांजलि वचनबद्ध वाणी नहीं है, वरन् उनके उपदेशों को हृदयंगम कर अपने जीवन में उतारना ही सच्ची विनयांजलि है। अंत में मेरी यही कामना है कि पूज्य माताजी सहस्राब्दि तक जीवित रहकर सम्यक्ज्ञान की धारा से हम जैसे पामर को उपकृत करती रहें । पूज्य माताजी के चरणों में नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु | For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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