________________
गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
[२४९
आप टिकैतनगर में ही निवास करते हैं। ६. श्री सुभाषचन्द जैन-सन् १९४७ में आपका जन्म हुआ तथा सन् १९६७ में बाराबंकी जिले के “गनेशपुर" कस्बे के श्रेष्ठी श्री कृष्णचन्दजी की बेटी "सुषमा" के साथ सुभाषचन्दजी का विवाह हुआ। आपके २ पुत्र एवं ४ पुत्रियाँ हैं। धार्मिक कार्यों में विशेष रुचि रखते हुए आप कपड़े और सर्राफे के व्यापारी हैं तथा टिकैतनगर में ही निवास करते हैं। आपका सुरीला स्वर अनेक कैसेटों के माध्यम से घर-घर में सुना जाता है, जो कि आपकी व्यक्तिगत रुचि का प्रतिफल है।
७. कुमुदनी देवी जैन-ईसवी सन् १९४८ में दो पुत्रों के बाद माता मोहिनी ने इस कन्या को जन्म दिया, जो उनकी आठवीं संतान हैं। सन् १९६४ में कानपुर निवासी श्री रिखबचंद जैन के सुपुत्र "श्री प्रकाशचंद जैन" के साथ कुमुदनी का विवाह हुआ। आपके २ पुत्र एवं ३ पुत्रियां हैं। सन् १९८४ में भाद्रपद शु. ९ के दिन आपके पति का अचानक देहावसान हो गया। उसके पश्चात् धर्मध्यान में अपना विशेष समय लगाती हुईं, आप कानपुर में ही निवास कर रही हैं। इनकी १ पुत्री कु. बीना जैन आजन्म ब्रह्मचर्य एवं दो प्रतिमा लेकर ज्ञानमती माताजी के संघ में रह रही हैं। ८. ब्र. श्री रवीन्द्र कुमार जैन-इनका परिचय ज्ञानमती माताजी के संघस्थ शिष्यों के परिचय में देखें। ९. ब्र. मालती शास्त्री-ईसवी सन् १९५२ में मोहिनी की दसवीं सन्तान का जन्म श्रावण मास में हुआ। आपने सन् १९६९ में आचार्य श्री सुबलसागर महाराज से ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया तथा सन् १९८२ तक आपने पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की छत्रछाया में रहकर शास्त्री, धर्मालंकार परीक्षाएं उत्तीर्ण की तथा धर्म का गहन अध्ययन किया है। वर्तमान में आप दिल्ली सरिता विहार में “रत्नत्रय शिक्षा एवं शोध संस्थान" नामक संस्था के द्वारा धर्म एवं शिक्षा के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। १०. सौ. कामिनी देवी जैन-सन् १९५६ में जन्मी इस कन्या का नाम रखा गया-कामिनी। २५ दिसम्बर, सन् १९६९ में पिताजी के दिवंगत होने के पश्चात् सन् १९७० के मगशिर माह में आपका विवाह टिकैतनगर से ६ कि.मी. दूर "दरियाबाद" कस्बे में लालाश्री सुखानन्दजी के सुपुत्र "श्री जयप्रकाशजी जैन" के साथ हुआ। आपके २ पुत्र एवं ३ पुत्रियां हैं। घर में कपड़े का व्यापार है तथा सम्मिलित परिवार के साथ आप दरियाबाद में ही निवास करती हैं। ११. ब्र. कु. माधुरी शास्त्री-इनका परिचय "आर्यिका चन्दनामती' के रूप में पूज्य माताजी के संघस्थ शिष्य परिचय में ही देखें। १२. सौ. त्रिशला शास्त्री-माता मोहिनी की बगिया का अन्तिम पुष्प बालिका त्रिशला है, जिसका जन्म १६ अप्रैल सन् १९६० में हुआ। इन्होंने ११ वर्ष की लघु वय में पूज्य माताजी के पास रहकर सोलापुर बोर्ड से "शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की, जो संभवतः शताब्दी का प्रथम रेकार्ड है। अनेक भजन, कविताएं आदि भी इनके लिखे हुए हैं तथा "रत्नकरण्ड श्रावकाचार" ग्रंथ का सुन्दर पद्मानुवाद भी त्रिशला ने शादी से पूर्व ही किया था, जो अभी अप्रकाशित है, शीघ्र प्रकाशित होने की संभावना है।
त्रिशला का विवाह १९ नवम्बर, सन् १९८० में लखनऊ नाकाहिण्डोला निवासी स्व. श्री लाला अनन्त प्रकाशजी जैन के सुपुत्र "श्री चन्द्र प्रकाश जैन" के साथ हुआ है। दो पुत्रों की माँ त्रिशला के साथ उनके पतिदेव भी अब धार्मिक कार्यों में रुचिपूर्वक भाग लेते हैं, आढ़त का व्यापार करते हैं तथा संयुक्त परिवार के साथ लखनऊ में ही निवास करते हैं। पूर्णा तिथि की प्रतीक-शरद् पूर्णिमा तिथि तो प्रतिवर्ष आती और जनश्रुति के अनुसार अमृत बरसा कर चली जाती थी, किन्तु सन् १९३४ की शरपूर्णिमा ने धरती पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी और मानो यहाँ के निवासियों से यह कहकर चली गई कि इस पूर्णिमा के चाँद के समक्ष मेरी शीतल रश्मियाँ भी व्यर्थ हैं, मैंने स्वयं भी अब इस चंद्रमा से अमृत ग्रहण करने का निर्णय किया है, जिसने मुझे भी धन्य और अमर कर दिया है, क्या मैं इनका उपकार जन्म-जन्म में भी भूल सकती हूँ? अर्थात् अब इस अवनीतल पर "पूर्णा तिथि की प्रतीक' कन्यारत्न के जन्म ने शरदपूर्णिमा तिथि को अक्षय पद प्राप्त करा दिया, जिसे युगों-युगों तक कोई मिटा नहीं सकता। कुमारिकाओं की पथप्रदर्शिकाकन्या के अधिकारों का मूल्यांकन कराने वाली मैना ने जीवन के मधुमास में प्रवेश करने से पूर्व ही नारी उद्धार का संकल्प लिया और स्वयंभू होकर उसकी पूर्ति के सपने संजोने लगी। न जाने कहाँ से ऐसी-ऐसी बातें ये सीखकर आई थी, क्योंकि तब तक तो इन्हें किसी गुरु का संयोग भी प्राप्त नहीं हुआ था।
माता मोहिनी तो तब दंग रह जाती, जब मैना की सखियां उनसे कहती कि आज हमें मैना ने शीलव्रत पालन का नियम मंदिर में दिलवाया है। अन्ततोगत्वा वि.सं. २००९ (ईसवी सन १९५२) में भारत गौरव आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज के मंगल सानिध्य में शरदपूर्णिमा के ही दिन बाराबंकी में उनकी हार्दिक इच्छा की सम्पूर्ति हुई, जिसके फलस्वरूप मैना का मधुमास सप्तम प्रतिमा रूप आजन्म ब्रह्मचर्य में परिवर्तित हो गया।
उस समय उन्होंने पारिवारिक एवं सामाजिक संघर्षों को झेलकर अपनी ही नहीं, प्रत्युत् समस्त कुमारिकाओं के हाथों में जकड़ी परतंत्रता की
Jain Educationa international
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org