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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
घटना कही जा सकती है, जिसने सम्पूर्ण लोक, विश्व, देश, समाज तथा व्यक्ति के ध्यान को आकर्षित किया है। जैन गणित के गांभीर्य को उन्होंने ही प्रथम बार मूल्यांकित किया, प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव प्रभु की द्वितीय सुपुत्री सुन्दरी की विद्या को प्रोज्ज्वल रूप से प्रकाशित किया, जिसकी ओर इस युग में किसी का लक्ष्य नहीं गया था। यही नहीं, वरन् न्याय एवं साहित्य में भी उनकी अभूतपूर्व प्रतिभा प्रखर रूप से प्रकाशन में आई और उन्होंने जो इस ओर भी अंशदान दिया वह ब्राह्मी की विद्या को निखारता चला आया।
इस प्रकार दोनों विद्याओं में निपुण पूज्य ज्ञानमती माताजी का जीवन एक नये दर्शन को सामने लाया है, नये आदर्श को लिये भारतीय एवं जग जीवन में क्रांति लेकर आया है। इस प्रशस्त अवसर पर हम सभी उनकी दीर्घायु की कामना करते हुए उनके परम पुनीत चरण कमलों में वन्दना के पुष्पों द्वारा हार्दिक अभिवादन भेंट कर रहे हैं।
विनयांजलि
- डॉ० शेखरचंद जैन, अहमदाबाद
पूजनीया १०५ आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी इस युग की ऐसी दीपशिखा हैं, ऐसी ज्योतिर्धरा हैं जिनके प्रकाश में उन अनेक जीवों को प्रकाश मिला जो अज्ञान और मिथ्यात्व के अंधेरे में भटक रहे थे। नारी जीवन कितनी ऊँचाइयों को छू सकता है, वह मोम-सी कोमल ममतामयी माँ है तो वज्र से भी कठोर संयम धारिणी और संसार के प्रति पूर्ण निर्मोही भी हैं। इन दोनों धाराओं की जीवंत मिसाल हैं आर्यिका ज्ञानमती जी।
ज्ञानमती यथा नाम तथा गुणधारिणी हैं। जैनागम के गहनतम और गूढ़तम विषयों की सरल संस्कृत और हिन्दी में टीका करके जैन धर्म का उपकार ही किया है। ज्ञान के साथ उनका भक्ति साहित्य जन-जन के लिए उपयोगी हुआ है। पुराणों को मूर्तरूप देने का प्रत्यक्ष प्रमाण जंबूद्वीप रचना है। आशा है वे ऐसा कोई पारमार्थिक स्थाई कार्य करेंगी, जिससे समाज के हर वर्ग, जाति, धर्म के लोग लाभान्वित हो सकें।
एक बार बुढ़ाना शास्त्री परिषद की कार्यकारिणी की बैठक से लौटने पर पूज्य माताजी के दर्शनों एवं परिचय का विशेष अवसर मिला, मुझ जैसे अल्पज्ञ से महत्त्वपूर्ण चर्चा माताजी ने की, यह ठीक वैसा ही था जैसे किसी साधारण व्यक्ति को राष्ट्रपति के साथ आत्मीयता से बात करने का अवसर मिल जाये, मैं बहुत प्रभावित रहा।
मैं बहुमुखी प्रतिभाधारिणी माँ के व्यक्तित्व को शब्दों में बाँधना स्वयं का अल्पज्ञान ही मानता हूँ। पर, भक्तिवश अटपटे शब्दों में इतना ही मनोभाव प्रस्तुत करता हूँ कि वे शतायु हों। उनका ज्ञानमय आलोक कल्याणकारी बने। हम सब उनके पथानुगामी बनें यही शुभभावना है। उनकी इस षष्ठिपूर्ति पर उनके चरणों में वंदना सह यही अपेक्षा है कि उनकी ज्ञान-ज्योति किरण हमारे मन में भी उतरे ... हमें भी अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाये।
सरस्वती की मूर्ति
- डॉ० दरबारी लाल कोठिया, बीना
वन्दनीया माता आर्यिका ज्ञानमतीजी के अभिवन्दन ग्रन्थ का प्रारूप मिला।
प्रारुप से माताजी की धार्मिक, साहित्यिक और सामाजिक सेवाओं का आकलन ज्ञात कर प्रमुदित हुआ।
यद्यपि उनसे कई दशकों से दूर सम्पर्क रहा। एक-दो बार उनसे साक्षात्कार भी हुआ और उनके द्वारा अनूदित अप्रकाशित "अष्टसहस्री" के विषय में चर्चा भी हुई। पर उनकी इच्छा की पूर्ति अन्य साहित्यिक कार्यों में व्यस्त रहने के कारण न कर सका।
___जैन समाज टिकैतनगर के आग्रह पर एक बार मैं वहाँ पयूषण पर्व में गया था और उनके गृहस्थी के घर में मुझे उसी स्थान पर ठहराया गया, जहाँ माताजी का स्वाध्याय कक्ष था। मुझे बताया गया कि इसी स्थान पर माताजी अपना ज्ञानाभ्यास किया करती थीं, मुझे बड़ी खुशी हुई।
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