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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
पू० माताजी अपने लौकिक ज्ञान को भले ही उतना अधिक न बढ़ा सकी हों, जितना उन्होंने अपने धार्मिक ज्ञान को बढ़ाया है। वे ज्ञान की विविध विधाओं में पारंगत हुईं। क्या व्याकरण, क्या सिद्धान्त, क्या न्याय, क्या दर्शन और क्या साहित्य प्रतीत होता है कि वे "सरस्वती की मूर्ति" हैं। उनके ज्ञान का क्षयोपशम निःसन्देह अद्भुत है।
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ज्ञान के क्षेत्र के अलावा तीर्थ प्रचार का भी कार्य उन्होंने ऐसा किया है, जो शताब्दियों तक रहेगा और जन-जन उसे देखकर अपनी श्रद्धा सुदृढ़ करेंगे । जम्बूद्वीप, सुमेरु आदि आगम-अभिहित तत्त्वों एवं तथ्यों को मूर्तरूप देकर उन्होंने यथार्थता का रेखाकंन किया है, जो आरम्भ में कुछ लोगों के लिए कर्मोदयवश हास्य- स्थान भी रहा है, किन्तु माताजी ने अपने संकल्प और साहस को नहीं छोड़ा।
उनका व्यक्तित्व ज्यों-ज्यों बढ़ता गया त्यों-त्यों उनमें गम्भीरता, विवेचकता और दूरदर्शिता भी बढ़ती गयी। इतना ही नहीं, उनका कृतित्व भी उत्तरोत्तर बढ़ता गया। आज वे ज्ञान और वैराग्य में निष्णात् होने की ओर उन्मुख है राष्ट्र उनका अभिवन्दन करे, यह उचित ही है।
हम उन्हें इस अवसर पर श्रद्धा से वन्दन- अभिवन्दन करते हैं और मंगलकामना करते हैं कि वे दीर्घ जीवी होकर अपने सुविचारित कृतित्व से राष्ट्र और समाज का मार्गदर्शन करते हुए लाभान्वित करती रहें ।
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शतशः नमन्
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प्रतिभा, श्रम और संगठन शक्ति, ये तीनों गुण जिस एक व्यक्तित्व में साकार हुए हैं, उसका नाम है आर्यिका ज्ञानमती माताजी। जिस देश में लोग पुत्र के जन्म पर खुशियाँ और कन्या के जन्म पर मातम मनाते रहे हों, उसी देश में जन्मी एक बालिका ने अपने अनथक पुरुषार्थ से मातम मनाने वालों को ठेंगा दिखाने का काम किया है । है कोई ऐसा पुरुष या माई का लाल, जो कृतित्व, कर्तृत्व और व्यक्तित्व में उसका सामना कर सके । उन्होंने अपने छोटे से जीवन में इतना कुछ किया है कि सदियों तक मातृशक्ति उससे महिमा मण्डित होती रहेगी।
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माताजी इस बीसवीं सदी का आश्चर्य हैं। पिछले दो हजार वर्षों में प्रथम बार किसी महिला ने अपने कोमल करों में सुई-धागा या सलाइयाँ न पकड़कर कलम पकड़ी और ग्रन्थ-लेखन के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित किया। जैन इतिहास में इन्हें प्रथम महिला अन्धकार के रूप में सदा श्रद्धा सहित स्मरण किया जाएगा। चार दशक के अपने साधना काल में उन्होंने जितना लिखा है, उसकी प्रतिलिपि करने में भी हमें इससे दूना समय लगेगा। जिन्होंने कभी डेढ़ सौ पंक्तियाँ भी नहीं लिखी हों, डेढ़ सौ ग्रन्थ लिखने वाली इस अद्भुत सर्जिका का मूल्यांकन करना उनके बस की बात नहीं है । लेखन-कर्म अपने आप में एक कठोर तपस्या है। उसका मर्म और महत्त्व वही जान सकता है, जो स्वयं इस राह का राही रहा हो। कहा भी गया है
विद्वानेव हि जानाति विद्वज्जन- परिश्रमम् । न हि बन्ध्या विजानाति गुर्वी प्रसववेदनाम् ॥
नरेन्द्र प्रकाश जैन [सम्पादक • जैन गजट ]
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माताजी की प्रतिभा बहुमुखी है। दर्शनशास्त्र, धर्म, अध्यात्म, गणित, भूगोल, खगोल, नीति, इतिहास, कर्मकाण्ड आदि विषयों पर उनका समान अधिकार है तथा साहित्य की विविध शैलियों जैसे गद्य, पद्य, नाटक, कहानी, संस्मरण, आत्मकथा आदि में उन्हें महारत हासिल है। इन सभी विधाओं पर और इन सभी विधाओं में उन्होंने ग्रन्थ लिखे हैं। बालकों को संस्कारित करने और उनकी कोमल चित्त-भूमि में सदाचार के बीज बोने के लिए सरल भाषा में अनेक पाठ्य पुस्तकें भी लिखी हैं। अब तक हजारों पाठकों ने उनकी रचनाओं का रसास्वाद कर मनःशान्ति और आत्मलाभ प्राप्त किया है। प्रकाशन के क्षेत्र में उनकी प्रशस्त प्रेरणा से स्थापित संस्था "त्रिलोक शोध संस्थान" की कीर्ति कौमुदी भारत से बाहर भी फैल चुकी है। पाश्चात्य विद्वानों ने भी उसकी सराहना की है।
हस्तिनापुर की पावन भूमि में निर्मित "जम्बूद्वीप" भारत में अपने तरह की पहली रचना है। अब तक इसका वर्णन केवल शास्त्रों में पढ़ने को मिलता था। सुमेरु पर्वत को हम केवल तस्वीरों या रेखाचित्रों में देखते थे। अब इनकी हूबहू भव्य और आकर्षक रचना है कि दृष्टि उस पर से हटती नहीं और कई-कई बार और कई-कई घण्टों तक देखते रहने पर भी मन कभी भरता नहीं ।
यह अनुभव की बात है कि पढ़कर उतना समझ में नहीं आता, जितना देखकर समझ में आता है। फिर भूगोल तो वैसे भी एक कठिन विषय है। जम्बूद्वीप- रचना ने भूगोल को हृदयंगम करना आसान कर दिया है। पूजा में हम पढ़ते थे
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