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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला .
तीर्थकरों के न्हवन जल से, भए तीरथ शर्मदा ।
ताते प्रदिच्छन देत सुरगन, पंचमेरुन की सदा ।। जिनाभिषेक से पवित्र वे अर्धचन्द्राकार शिलायें सुमेरु पर्वत की चारों दिशाओं में स्थित वे सोलह चैत्यालय या भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक जैसे सुहावने नाम वाले वे वन-प्रदेश कहाँ हैं और कैसे हैं, अब यह कल्पनातीत विषय नहीं रह गया है। हम उन्हें प्रत्यक्ष देख सकते हैं। कुलाचल, गजदन्त, वक्षार, विजयार्ध, जम्बू, शाल्पलि आदि भौगोलिक शब्दावली का अर्थ अब हमारी समझ में आने लगा है। पुराणवर्णित कुल ७८ अकृत्रिम चैत्यालयों की मन्त्र-विशुद्ध प्रतिकृतियों की वन्दना करने से हमारा कर्म-भार भी हल्का हो रहा है।
यों तो जम्बूद्वीप का निर्माण राज-मजदूरों ने ही किया है, किन्तु उसकी असली शिल्पकार तो माताजी ही हैं। उन्होंने त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थों को पढ़कर उसका एक नक्शा ध्यान के अवलम्बन से पहले अपने मन में बनाया, फिर उसे कागज पर उतारा या उतरवाया और तब राज-मजदूरों को समझाया। इतना ही नहीं, पूरे छह वर्षों तक उसका निरीक्षण-परीक्षण, अनुसन्धान, संवर्द्धन-परिवर्द्धन-संशोधन और निर्देशन किया। तब जाकर कहीं यह शास्त्रोक्त कल्पना साकार हुई। इसके पीछे उनकी प्रतिभा, कल्पना और श्रम की त्रिवेणी बह रही है।।
इस जम्बूद्वीप के निर्माण का कुछ लोगों ने जमकर विरोध भी किया, किन्तु माताजी को उनके फौलादी संकल्प से वे डिगा न सके। आज उनकी उस अटूट लगन का ही परिणाम है लाखों दर्शकों को चुम्बक की तरह खींचने वाला यह जम्बूद्वीप। अब तो सरोवर युक्त कमल-मन्दिर, त्रिमूर्ति मन्दिर तथा अन्य अनेक निर्माणों की वजह से यह स्थान स्वयं में एक अनोखा तीर्थ ही बन चुका है।
सन् १९८२ से ८५ के मध्य माताजी की प्रेरणा से ही सम्पूर्ण भारत में "जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति" का प्रवर्तन हुआ। हजारों जैनाजैन लोगों को उसने व्यसनमुक्त जीवन जीने की प्रेरणा दी। आचार्य श्री वीरसागर विद्यापीठ, “सम्यग्ज्ञान" हिन्दी मासिक तथा समय-समय पर आयोजित शिक्षण-शिविरों के माध्यम से आज भी अहर्निश ज्ञान का अलख जगाया जा रहा है। पूज्य आदिमती और जिनमती-सरीखी सिद्धान्तवेत्ता आर्यिकायें उनसे ही शिक्षण प्राप्त कर व्युत्पन्न बनी हैं। उनके ऐसे अन्य शिष्यों की संख्या भी अपरिमित है। प्रभावना के क्षेत्र में उन्होंने आचार्य समन्तभद्रस्वामी की इस कथनी को सार्थक किया है
अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् ।
जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥ पूज्य माताजी के उपकार अनन्त हैं। उनसे उऋण होना सम्भव नहीं। उनके सम्मान में अभिवन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन उनके प्रति समाज की कृतज्ञता का ही प्रकाशन है। कृतज्ञता एक भारतीय का प्रथम गुण है। अकृतज्ञ अनादर का पात्र बन जाता है। माताजी के सम्मान में वस्तुतः हम सबका सम्मान सुरक्षित है। उनके चरणों में शतशः नमन् ।
स्मृतियाँ जो स्मृत रहेंगी
-पं० सागरमल जैन विदिशा अध्यक्ष दि० जैन शास्त्री परिषद्
प्रथम दर्शन- हस्तिनापुर, गुरुवार १२ अकूटबर १९७८ परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सानिध्य एवं मार्गदर्शन में विद्वानों के शिविर का आयोजन आदरणीय जमादारजी के संचालन में चल रहा था, प्रातः का भाषण मेरा हुआ। माताजी ने सुना और मुझे प्रथम बार में ही स्नेह/आशीर्वाद इतना मिला कि उसकी अनुभूति है जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। माँ का स्नेह अलग ही होता है, दोपहर में मुझसे चर्चा हुई। श्री जमादारजी ने कलकत्ता पर्व के प्राप्त पत्र उन्हें बताये। मैं १९७८ में पर्युषण में गया था, माताजी ने समयसार एवं रत्नकरण्ड श्रावकाचार पर दोपहर बाद की सभा में बोलने का आदेश दिया। ४५ मिनिट तक बोला। अंत में माताजी ने विद्वानों की सभा में जो मुझे आशीर्वाद और उद्गार प्रकट किये थे उन्हें मैं स्वयं नहीं लिख सकता, पूरे टेप हस्तिनापुर में सुरक्षित हैं। इसी दिन मैंने पहली बार उनके दर्शन किये थे। आज तक जितने भी पंचकल्याणक/समारोह हस्तिनापुर में हुये हैं मुझे अत्यधिक बहुमान/स्नेह/आशीर्वाद मिलता ही गया है। यदि में लिखू कि देश के विद्वानों से इसी शिविर में सामूहिक रूप से परिचय प्राप्त कर सका हूँ तो गलत नहीं होगा, क्योंकि उस समय लगभग ५३ विद्वान् वहाँ थे।
पू० माताजी के स्नेह-आशीर्वाद, वात्सल्यता की सीमा मेरे प्रति ८ मार्च १९८७ को इतना हो गई कि फिर कोई सीमा ही शेष नहीं रही। विशाल
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