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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
चलती सँसों को जीने दो, असमय में अब दफनाओ मत ॥ ४३ ॥ फिर मन में बोली, रही यहाँ, माँ ऐसी रोज सुनायेगी ; जब बाँस नहीं होगा किससे, फिर बजा बाँसुरी पायेगी । बोली माँ तुम भी घर त्यागो, मैं यही भावना भाती हूँ; अब बात तुम्हारी तुम जानो, लो मैं तो कदम बढ़ाती हूँ ॥ ४४ ॥ यह ज्यों मैंना से सुना तभी, माता का वैसा हाल हुआ; आई थी दरवाजा लेने, लेकिन आँगन पर वार हुआ । मन ही मन बोली धन्य आज, हो गई सफल मम काया है; मैं भी इसके संग चलती हूँ, पर तभी मोह हो आया है ॥ ४५ ॥ सब समझ मात बेसमझ बनीं, तत्क्षण ममता बस डोल उठी; गोदी में लिये मालती को, माता आँसू भर बोल उठी । देखो कुल बीस दिवस की यह, क्यों इस पर तरस न लाती हो? क्यों बेटी ? बहिन मालती को, इस तरह छोड़कर जाती हो ॥ ४६ ॥ क्या कमी बताओ इस घर में, जो ऐसा तुमको भाता है; देखो तो यह छोटा रवीन्द्र ? किस तरह विलखता जाता है। इसकी आयु दो वर्ष सिर्फ, क्या सोचेगा कल भाई है? इसने तो बड़ी बहिन अपनी, अच्छी, विध देख न पाई है ॥ ४७ ।। पर नहीं मोहनी मोह सकी, ममता से जरा न प्रीत हुई; मैना के आँसू गिरे किन्तु, फिर भी समता की जीत हुई । रह गये पिता निस्तब्ध खड़े, परजन पुरजन सब डोल उठे;
आ गई मूर्छा माता को, अधरों से ऐसे बोल उठे ॥ ४८ ॥ मैं नहीं जानती थी उस दिन, ऐसी भी बेला आयेगी ; मैना ममता का पिंजड़ा तज, वैरागिन बन उड़ जायेगी । पर बाराबंकी नगर ओर, मैंना ने थे पग मोड़ दिये; हो गई राग की आग राख, वैरागी कम्बल ओढ़ लिये ॥ ४९ ॥ बाराबंकी में डगर-डगर, बज रहे विरागी बाजे थे; उस नगरी में उस समय, देशभूषण महाराज विराजे थे । मैंना इतने में आ पहुँची, बोली जोरों से जयकारा; पीछे देखा तो खड़ा हुआ, कैलाशचन्द्र भाई प्यारा ॥ ५० ॥ वह बोला बहिन चलो घर को, मैं पीछे भागा आया हूँ; माँ-पिता सभी यह चाह रहे, मैं तुमको लेने आया हूँ। मैंना बोली धीरज रखो, यह तो काया का नाता है; कोई न किसी को भेज सके, न कोई लेने आता है ॥ ५१ ॥ माँ-पिता सभी से कह देना, कुछ ज्यादा फर्क न आया है; उस दिन रागी का था निमित्त, अब वैरागी का पाया है। यह सुनकर गद-गद हुआ भ्रात, बोला मैंना मैं जाता हैं। तुम करो आत्म-कल्याण, पिता की ममता-मोह मिटाता हूँ ॥ ५२ ॥ फिर मैंना बोली कह देना, भूलें ममता की हेटी को; अब तक ममता की दी अशीष, अब समता की दें बेटी को। अब सुनो एक दिन वो आया, जिसकी ऐतिहासिक गाथा है;
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