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________________ १७२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "बीसवीं सदी की महानतम विभूति" अमृत के तुल्य दिव्य जलों से परिपूर्ण नदियाँ सदैव जिसको पवित्र करती हैं भगवती लक्ष्मी एवं सरस्वती जिसका यशगान निरन्तर करती रहती हैं ऐसे महान् भारत देश में अनादिकाल से असंख्य महान् आत्मायें अवतीर्ण हुई हैं। आधुनिक काल में भी साधारणतया कन्या का जन्म घर में क्षोभ उत्पन्न कर देता है, किन्तु वास्तविकता तो यह है कि हमारी धर्मपरम्परा सतियों के सतीत्व के बल पर ही अक्षुण्ण बनी हुई है। बीसवीं सदी में इसी श्रृंखला में एक और नाम जुड़ जाता है और वह है पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का। श्री ज्ञानमती माताजी इस सदी की महानतम विभूति हैं इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। मैंने कई बार माताजी के गरिमापूर्ण व्यक्तित्व और उनकी उपलब्धियों के विषय में सुना तो था, किन्तु उनके साक्षात् दर्शन और उपदेश श्रवण का सौभाग्य मुझे १९९० में उस समय प्राप्त हुआ जब पवित्र जम्बूद्वीप स्थल पर चल रहे इन्द्रध्वज महामंडल विधान में सम्मिलित होने का मुझे शुभ अवसर प्राप्त हुआ। उस समय मैंने माताजी को काफी निकट से देखा और जितना सुना था उससे कहीं ज्यादा पाया। सुबह से शाम तक उनका एक-एक क्षण अमूल्य होता है। सुबह से ही उनका लेखन कार्य व अध्यापन कार्य प्रारम्भ हो जाता है। - कु० सारिका जैन [लवली] मवाना असंख्य यात्री उनके दर्शनार्थ आते हैं, उनके उपदेशों का श्रवण करते हैं और कोई न कोई संकल्प अवश्य लेकर जाते हैं। माताजी कभी किसी को व्यर्थ नहीं बैठने देतीं, यहाँ तक कि छोटे-छोटे बच्चे भी धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन करते रहते हैं। माताजी के धर्ममय गरिमापूर्ण व्यक्तित्व का मुझ पर ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा है कि मैं भी समय-समय पर उनके सानिध्य में जाती रहती हूँ और उनकी बतायी हुई बातों को व्यवहार में लाने का प्रयत्न करती हूँ। हम सभी उनके मुखारविन्द से उनके उपदेशों का अमृतपान आने वाली अनेक शताब्दियों तक करते रहें यही मेरी उत्कट इच्छा है। Jain Educationa International "नारी से नारायणी बनी ज्ञानमती मात" मैं आज तक भी समझ नहीं पाती हूँ कि घर के सरागी वातावरण में पली मेरी मैना जीजी के हृदय में वैराग्य भावना क्यों और कैसे उत्पन्न हुई ? क्योंकि इससे पूर्व सुना ही नहीं था कि कुँवारी लड़की भी दीक्षा ले सकती है। घर की सबसे बड़ी सन्तान होने के नाते दादी माँ, चाची, चाचा, माँ-पिताजी सभी को इनकी शादी करने की हार्दिक तमन्ना थी । मुझे याद है ४० साल पूर्व के उस पुराने युग में भी जब लड़कियों के सामने शादी की बात भी नहीं की जाती थी तो भी पिताजी अपनी लाडली बेटी को पसन्द कराने हेतु दूकान से तरह-तरह के जेवर भेजते। उन्होंने तो शादी की हर चीज मैना की इच्छा और पसंद के अनुरूप ही देने का पक्का इरादा कर रखा था। शायद हर माता-पिता के अपनी सन्तान के प्रति इसी तरह के अरमान होते हैं, फिर मैना जीजी तो पिताजी के साथ पुत्री नाहीं, एक सुयोग्य पुत्र की भाँति व्यापारिक लिखा-पढ़ी में हाथ बँटाती थीं अतः वे उनकी सर्वाधिक चहेती सन्तान थीं। शंका तो घर में तब उठती थी जब पिताजी के द्वारा भेजे गये गहनों को वे मेरे पास भेज देतीं और कहतीं शान्ति ! तुम अपने लिए पसन्द - शान्ति देवी जैन, डालीगंज, लखनऊ 1 कर लो मैं उनसे लगभग २-३ वर्ष ही छोटी थी, उन्हें तरह-तरह के गहने एवं वस्त्राभरणों में मैं लुभाना चाहती, किन्तु पूर्व जन्म के संस्कार ही कहना होगा कि उन्हें गृहस्थ सम्बन्धी कोई वैभव अपने मोहपाश में बाँध न सका; क्योंकि उन्होंने तो "नारी से नारायणी' बनने का ही संकल्प ले रखा था। जो भी है, आज वे सारे विश्व के समक्ष एक मार्गदर्शिका के रूप में विराजमान हैं, जबकि मैं अपनी गृहस्थी की चारदीवारी में सीमित एक सामान्य नारी के रूप में हूँ आप जैसी महासती के दर्शनमात्र से अपना जीवन धन्य मानती हूँ। आपकी इस अभिवन्दना बेला में मैं अपने तुच्छ श्रद्धा पुष्प अर्पित करती हुई यही भावना भाती हूँ कि जीवन के अन्त में मुझे आपकी छत्रछाया अवश्य प्राप्त हो, ताकि नारी की परतन्त्र पर्याय से छूट कर मैं भी मोक्ष की अधिकारी बन सकूँ । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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