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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१७१ अपूर्व साध्वी - आनन्द प्रकाश जैन, 'शान्तिप्रिय', फरीदाबाद परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने हम सबका अनन्त उपकार किया है। कहते हैं, हजारों दर्शकों के समक्ष, अपने अद्भुत प्रदर्शनों के द्वारा जादूगर बड़े-बड़े बुद्धिमानों को भी चकित कर दिया करता है। इधर माताजी ने इस युग में अनेक चामत्कारिक कार्य कर दिखाये हैं। जिनागम से पूर्ण प्रामाणिक लोक का सच्चा स्वरूप उन्होंने ईंट-पत्थरों में निर्माण करा कर हस्तिनापुर की प्राचीन पवित्र तीर्थ-स्थली को देश-विदेश के लाखों यात्रियों के लिए दर्शनीय बना दिया है। उनके पूर्व जन-साधारण का ज्ञान भूगोल व इतिहास की स्कूली पाठ्य पुस्तकों तक ही सीमित था। हमें नहीं मालूम था कि दुनिया बहुत बड़ी है, आज की जानी-मानी दुनिया से भी आगे दुनिया है। पंडितों से सुना करते थे कि स्वर्गों के इन्द्र-देवगण बालक तीर्थंकर को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर पांडुक शिला पर जल-कलशों से, अभिषेक करते हैं। अब हमने हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप एवं लवण समुद्र की सम्पूर्ण प्रतिकृति के बीचोंबीच स्थित सुमेरु पर्वत की पांडुक शिला पर जिनेन्द्र-प्रतिमा का इन्द्र बने मानवों के द्वारा कई-कई बार अभिषेक देखा तो अन्तकरण को अपूर्व आनन्द मिला है। पूज्य माताजी के कुशल निर्देशन में बनी इस प्रतिकृति की कारीगरी इतनी श्रेष्ठ है कि देखते ही बनती है। वहाँ चैत्यालयों में स्थित धवल प्रतिमाओं के दर्शनों से बड़ी शान्ति मिलती है। पूज्य माताजी जानती हैं कि सम्यग्ज्ञान के बिना समाज में धर्म नहीं टिकेगा। इसलिए बाल, वृद्ध, नर, नारी सभी के स्वाध्याय के लाभ के लिए माताजी की लेखनी निरन्तर चलती रहती है। जिनवाणी के छोटे-बड़े सभी विषयों को उन्होंने सरल सरस भाषा में ऐसा सँजोया है कि मैं इनका पठन पुनः पुनः करता हुआ भी विराम नहीं लेता। इनकी शाश्वत लेखनी के एक-एक शब्द को मैं अमृत की बूंद समझ कर पीता हूँ। माताजी अपूर्व साध्वी हैं। उनकी सारी जीवनी अलौकिक है। उनके निकट पहुँचते ही मन को बड़ी शान्ति मिलती है। मेरे को उनका पवित्र, आशीर्वाद कई बार प्राप्त हुआ है। मैं उनके चरणों का अनुरागी बन गया हूँ। मैं तो चाहता हूँ कि आत्मा का चिन्तन करते हुए मेरे इस शरीर का अन्त उनके चरण सानिध्य में होवे। शब्दातीत व्यक्तित्व की धनी - महावीर प्रसाद जैन, एडवोकेट, हिसार यह जानकर कि दिगम्बर जैन समाज, पूजनीय माताजी की बहुआयामी सेवाओं तथा आध्यात्मिक जीवन के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के भाव से एक अभिवन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन कर रहा है। यह विचार बहुत ही अच्छा है। माताजी ने बहुत उपयोगी ग्रन्थ लिखे हैं, उनकी जितनी प्रशंसा की जाये, थोड़ी है ये श्रावक समाज के लिए बहुत ही लाभदायक हैं, इसके अतिरिक्त जो संस्था हस्तिनापुर में कायम हो गई है वह बहुत समय तक धार्मिक-प्रवृत्ति के आदमियों के लिए लाभदायक होगी। मेरे पास शब्द नहीं हैं जिनसे मैं माताजी के गुणों का वर्णन कर सकूँ। मैं उनके चरणों में अपनी विनम्र विनयाञ्जलि समर्पित करता हुआ उनकी स्वस्थता की कामना करता हूँ। विनयांजलि - श्रीमती सुशीला सालगिया, इन्दौर कंचन होवे लोहा पारस, रहे पास में दोय । संगत पावे ज्ञानमती की, अज्ञानी ज्ञानी होय ॥ सूर्य स्वयं तो प्रकाशमान है ही पर अपनी तेजस्विता से लोक के समस्त पदार्थों को दृश्यमान कर देता है ऐसे ही महान् आत्माएँ अपने ज्ञान ज्योति पुंज से अनेक आत्मदीपों को ज्योतित करती हैं। पूजनीया गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने अनेक भव्यात्माओं को जगत् पंक से उबारकर मोक्ष मार्ग पर आरूढ़ किया है, भ्रमितों को सन्मार्ग दर्शाया है तथा अज्ञों को विज्ञ बनाया है। तत्त्व मीमांसा, पूजा विधान, स्तोत्रादि का अनुदित एवं मौलिक जो लेखन माताजी द्वारा हुआ, वह इस युग में हुई समस्त आर्यिकाओं द्वारा हुए लेखन में बेजोड़ है। पूज्य माताजी अनवरत साहित्य साधना करते हुए सरस्वती भंडार का वर्धन करती रहें, दीर्घायु एवं स्वस्थ रहकर जन-जन का कल्याण करती रहें यही मनोकामना करती हूँ तथा उनके चरणों में शतशः वन्दन करती हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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