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________________ २७०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला नसीब अपना-अपना - श्रीमती कुमुदनी देवी जैन, कानपुर जब मैं १३-१४ वर्ष की थी, तब मैं रोज अपनी माँ से कहा करती कि मुझे भी ज्ञानमती माताजी के दर्शन करा दो। माँ कहतीं - करा देंगे, लेकिन बहुत दिन तक मुझे जब माताजी के दर्शन नहीं हो पाये तो मैंने अपने मन में माताजी के दर्शन होने तक दूध का त्याग कर दिया। घर में जब लोगों को पता चला तो वे नाराज भी हुए। सन् १९६२ में शिखरजी की यात्रा को जाते हुए जब टिकैतनगर पू० माताजी का संघ आया तब मैं पूज्या माताजी के दर्शन करने अपनी गोद में छोटी बहन को लेकर गई। मैं माताजी को नमस्कार कर देखती रही, लेकिन माताजी ने मुझसे कुछ नहीं कहा; तब मैं खड़ी-खड़ी रोने लगी। माताजी ने कहा- तुम किसकी लड़की हो ? जब मैंने धीरे से कहा- छोटेलालजी की। तब माताजी को ज्ञात हुआ कि ये मेरी बहन है। मैंने पू० माताजी के साथ जाने की भी कोशिश की, लेकिन घर में सभी ने डाँट दिया। ____ मैं अब सोचती हूँ कि नसीब अपना-अपना ही साथ देता है। मैं पू० माताजी की बहन होते हुए भी गृहस्थाश्रम में बँध गई और आज माताजी इतने विपुल ज्ञान सहित समस्त लोगों की पूज्य बन गईं। फिर भी मैं अपना सौभाग्य समझती हूँ कि मुझे वर्ष में एक-दो बार पू० माताजी के दर्शन करने का और सेवा करने का शुभ अवसर मिल जाता है। गृहस्थी में रहते हुए भी मैं अपना आत्मकल्याण कर सकूँ , इन्हीं भावों के साथ मैं अपनी विनम्र विनयांजलि अर्पित करती हूँ। पर्वतीय दृढ़ता की प्रतीक -सौ० कामनी जैन, दरियाबाद माँ की दीक्षा के पश्चात् यह प्रथम अवसर था जब हम लोग सम्पूर्ण परिवार सहित १३ अगस्त १९८९ को अपनी छोटी बहन कु० माधुरी की दीक्षा देखने हेतु हस्तिनापुर में एकत्रित हुए थे। १५ दिन पूर्व रवीन्द्र भैया के पत्र द्वारा यह दीक्षा समाचार जानकर तो मेरा मानसिक सन्तुलन ही बिगड़ गया था। भले ही विद्वान् लोग इसे मोह का आवेग ही कहेंगे, किन्तु आप ही बताएँ कि हम अपनी कोमलांगी उस लघु बहन को इस कठोर त्याग पर चलते भला किस प्रकार देख पाते? समस्त सुख-सुविधाओं में रहते हुए हम लोग तो शायद इस दुरूह पथ की कल्पना भी नहीं कर सकते। खैर ! दुःखी मन से बहन को बहन रूप में अन्तिम बार देखने हस्तिनापुर पहुंचे तो वहाँ पूज्य गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी का पत्थर जैसा सख्त आदेश हम सभी को प्राप्त हुआ कि "जो यहाँ एक भी आँसू बहायेगा उसे दीक्षा मंच पर नहीं आने दिया जायेगा, कमरे में बन्द कर दिया जाएगा।" रोने पर लगी पाबन्दी को भी जैसे-तैसे सहन किया गया। हालाँकि यह कोई प्रदर्शन तो था नहीं, जिस बहन को हम सभी ने गोद में खिलाया था भला उससे सहज में मोह कैसे छूट जाता, इसका अनुमान आप भी लगा सकते हैं। सभी के धैर्य का बाँध दीक्षा के उस मंच पर टूट गया जब ज्ञानमती माताजी बड़ी निर्ममतापूर्वक माधुरी के बड़े-बड़े बालों को लोंच कर रही थीं। उस समय पूरा पांडाल सिसकियों में डूबा था और माताजी तथा माधुरी अत्यन्त प्रसन्न थीं। आखिर उन्होंने दीक्षा देकर माधुरी को हम सबके देखते-देखते "आर्यिका चन्दनामती" बना दिया, किन्तु मुझे आश्चर्य उस समय हुआ जब केशलोंच के बाद मंगल चौक पर दीक्षार्थी को बिठाकर समस्त समाज एवं परिवार से पूछने लगीं- माधुरी को दीक्षा देने हेतु आप सबकी स्वीकृति है या नहीं ? यदि आप में से कोई इन्हें दीक्षा योग्य नहीं समझते हैं तो हाथ उठाएँ। कमी भला किस बात की थी, जिसने १८ वर्ष तक गुरुचरणों में रहकर कठोर साधना एवं ज्ञान अर्जित किया हो उसे अयोग्य कौन कहता ? हाँ, मैं तो आज भी यह सोचती हूँ कि यदि माताजी पहले पूछती तो हम शायद कभी स्वीकृति न प्रदान करते। हमने अपने पिताजी के मुँह से सुन रखा था कि ज्ञानमती माताजी बड़ी निष्ठुर हैं, वे निर्ममतापूर्वक शिष्याओं के बाल नोच डालती हैं। जैनी दीक्षा का सर्वाधिक कठिन कार्य शायद केशलोंच ही है, उसमें ममता के लिए स्थान कहाँ ? हम मोही प्राणी संसार में न जाने कितने ताने-बाने बुनते हैं, किन्तु जब भी पूज्य माताजी का सानिध्य मिलता है तो वे वैराग्य की एक न एक चूंटी अवश्य पिलाती हैं यह उनके अप्रतिम त्याग और वैराग्य का ही प्रतीक मानना पड़ेगा। पूज्या माताजी के पुनीत चरणों में मेरी यही विनम्र विनयांजलि है कि हम जैसे मोही प्राणियों को भी इसी प्रकार संबोधन प्रदान कर धर्ममार्ग पर लगाती रहें, ताकि हम भी एक दिन संसार सागर से पार हो सकें। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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