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________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला २. धर्म के सागर से प्रवाहित कल्याणी वाणी लोहारिया (राज.) में ज्ञानज्योति सभा को आचार्यश्री धर्मसागरजी महाराज का जो अनमोल आशीर्वाद प्राप्त हुआ, वह इस इतिहास की अमिट लेखनी में सदैव स्वर्णकित रहेगा। प्रस्तुत है प्रवचनांश सम्पूर्ण राजस्थान में ज्ञानज्योति के द्वारा जैन तथा अजैनों को अभक्ष्य भक्षण का त्याग तथा अनेकानेक व्यसनों का त्याग कराकर उन्हें सन्मार्ग पर लगाया जा रहा है, यह जानकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई है ज्ञानमती माताजी तो मेरे हो गुरु (आचार्य श्री वीरसागरजी) की शिष्या हैं। वे आगम तथा गुरुपरम्परा को निभाने में अत्यंत दृढ़ हैं। अतः उनके द्वारा प्रेरित कोई भी कार्य अवश्य ही सर्वतोमुखी विकास में सहायक होगा, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। मैंने सन् १९७४ में भगवान महावीर के २५००वें निर्वाणोत्सव पर देहली में उनके द्वारा अनुवादित अष्टसहस्त्री की प्रकाशित प्रति को देखकर अत्यंत गौरव का अनुभव किया था कि हमारी इस परम्परा में ऐसी विदुषी आर्यिका की प्रगति को यदि गुरुदेव स्वयं देख लेते तो कितने प्रसन्न होते ? जो भी हो, गुरुवर्य ने कुछ सोचकर ही इन्हें ज्ञानमती नाम दिया था। [५७३ पुनः शायद आचार्यश्री के समक्ष महासभा द्वारा 'समन्वयवाणी' अखबार प्रस्तुत किया गया था, जिसमें कुछ पंडितों द्वारा मुनियों के विरोध में लिखा गया लेख था । अन्य प्रवचनों के मध्य उस लेख को पढ़कर आचार्यश्री के अन्दर चन्द्रसागर महाराज जैसी सिंहवृत्ति जाग्रत हो उठी (क्योंकि इन्होंने आ.कल्प श्री चन्द्रसागरजी से क्षुल्लक दीक्षा ली थी, गुरु का कुछ असर तो शिष्य पर आता ही है) अतः अपने अत्यंत जोशीले प्रवचन में आचार्यश्री ने स्पष्ट कहा "हम वीर की संतान हैं, अतः वीरत्व का कार्य करना चाहिए। जो लोग आगम का, निर्दोष साधुओं का निज के हठाग्रहवश विरोध करते है, उनका अवश्य ही डटकर विरोध होना चाहिए। जो लोग पूर्वाचार्यो की स्याद्वादमयी वाणी का निषेध करते हैं, वे जैनी कहलाने के अधिकारी नहीं हैं। धर्म विरोधी तो स्वयं अपना पतन करते हैं। आचार्यश्री ने अपनी भोली-भाली मारवाड़ी भाषा में कहा - "जे विरोध करसी नरक जासी" । आज विजयदशमी के दिन जिस प्रकार से भगवान राम की विजय हुई थी एवं रावण का संहार हुआ था, उसी प्रकार मेरा यही आशीर्वाद है कि धर्मकार्य करने वालों को विजय प्राप्त होवे। जैनधर्म वीतराग धर्म है। जो लोग रात्रि भोजन करते हैं, संयम को धारण नहीं करते हैं, होटलों में खाना खाते हैं, उन्हें साधुओं की निन्दा करने का कोई अधिकार नहीं है। पहले निज पर दृष्टि डालो, तभी कल्याण होगा, अन्यथा नहीं।" ३. उपाध्याय श्री अजितसागरजी के उद्गार - राजस्थान के सलूम्बर नगर में जिस समय ज्ञानज्योति पहुँची थी, उस समय संयोगवश वहाँ आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के द्वितीय पट्टाधीश आचार्यश्री शिवसागर महाराज के शिष्य परमपूज्य उपाध्याय श्री अजितसागर महाराज अपने संघ सहित विराजमान थे। अतः मुनि श्री एवं चतुर्विध संघ के पुनीत सानिध्य में ज्ञानज्योति की स्वागत सभा दिगंबर जैन समाज द्वारा आयोजित की गई। जिसमें विभिन्न वक्ताओं के भाषणोपरान्त उपाध्याय श्री का मंगल उद्बोधन सभी को प्राप्त हुआ । पूज्य उपाध्यायश्री ने अपने प्रवचनों में ज्ञानज्योति की बहुउद्देशीय योजनाओं की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा यह ज्योतिरथ एक चलता-फिरता तीर्थ है। आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने इस वृहत् कार्य में अपनी प्रेरणा प्रदान करके निज नाम को सार्थक किया है। माताजी के उच्चकोटि के ज्ञान से भला कौन ऐसा व्यक्ति है, जो परिचित नहीं होगा। मुनिश्री ने इस प्रवर्तन के साथ ही विशाल साहित्य का विस्तृत प्रचार-प्रसार करने की प्रेरणा प्रदान की तथा उन्होंने कहा कि जो जम्बूद्वीप रचना छिपा पड़ा था, वह इस युग में धरती पर साकार हो रहा है, यह बड़ी प्रसन्नता का इतिहास तिलोयपणत्ति, त्रिलोकसार, मोक्षशास्त्र आदि ग्रंथों में की बात है । हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना के बाद निश्चित ही वैज्ञानिक लोग वहाँ खोज करने के उद्देश्य से पहुँचेंगे, क्योंकि शास्त्रीय ज्ञान के बाद साक्षात् रूप से वस्तुतत्त्व को देख लेने पर उसका रहस्य सहज ही समझ में आ जाता है। सलूम्बर (राज.) में उपाध्याय श्री अजितसागर जी महाराज ज्ञानज्योति का अवलोकन करते हुए। Jain Educationa International परमपूज्य श्री अजितसागरजी महाराज ने पं. बाबूलाल जमादार को एवं ज्ञानज्योति के समस्त सहयोगियों को खूब ज्ञान का प्रचार करने हेतु अपना मंगल आशीर्वाद प्रदान किया तथा ज्योतिवाहन के निकट जाकर सूक्ष्मदृष्टि से मॉडल का अवलोकन भी किया। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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