SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गणिनी आर्यिकारत्र श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२५९ अपूर्व कार्यक्षमताउस दीर्घकालीन अस्वस्थता के पश्चात् माताजी आज भी एक स्वस्थ व्यक्ति से कहीं अधिक कार्य करती हैं। उन्हें शिष्यों का भी एक मिनट खाली बैठना पसंद नहीं है। जीवन के १-१ क्षण का सदुपयोग करने की शिक्षा उनके सानिध्य से सहज प्राप्त हो सकती है। तभी तो उन्होंने सन् १९८६ की मरणोन्मुखी अस्वस्थता के बाद भी कल्पद्रुम, सर्वतोभद्र, तीन लोक, जम्बूद्वीप आदि वृहद् मंडल विधानों की रचना की तथा समयसार ग्रंथ का अनुवाद किया, अनेक मौलिक ग्रंथों का सृजन किया तथा वर्तमान में "सिद्धचक्र मंडल विधान" का नवीन रचना कार्य चल रहा है। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग उनकी नियति है। प्रातःकाल हम लोगों को उनके पावन सानिध्य में धवल, जयधवल, समयसार आदि ग्रंथों के सामूहिक स्वाध्याय का लाभ प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त उनका समय अपनी दैनिक क्रियाओं में तथा स्वाध्याय और भाक्तिकों को आशीर्वाद प्रदान करने में व्यतीत होता है। शुद्ध प्रासुक लेखनी चिरकाल तक जीवन्त रहेगीआचार्य श्री कुंदकुंद, उमास्वामी, समंतभद्र, अकलंकदेव तो हमने नहीं देखे, जो हमें अपने हाथों से लिखकर अमूल्य साहित्यिक कृतियां प्रदान कर गए, किन्तु उन सबका मिला-जुला रूप हमें वर्तमान में गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के अंदर दृष्टिगत हो रहा है। जिन्होंने पूर्वाचार्यों की वाणी से अनुस्यूत एक-एक शब्द अपने ग्रंथों में संजोया है, पापभीरुता जिनमें कूट-कूट कर भरी हुई है, मनगढ़त एक शब्द भी जिनकी कृतियों में उपलब्ध नहीं हो सकता। ऐसी शुद्ध लेखनी को जग का बारम्बार प्रणाम है। प्रासुक लेखनी से हमारे पाठक भ्रमित हो सकते हैं कि पानी, दूध तथा खाद्य पदार्थ प्रासुक किये जाते हैं, क्या लेखनी भी किसी की प्रासुक हो सकती है? हाँ, लेखनी भी प्रासुक है, तभी तो उनके द्वारा लिखित ग्रंथों में अतिशय देखा जा रहा है। आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने जीवन में कभी बॉलपेन, बाजारू इंक, नये फैशन के पॉयलट आदि पेन प्रयोग नहीं किए, छुए भी नहीं। तब प्रश्न होता है कि इतने सारे ग्रंथ लिखे कैसे? सूखी नीली कोरस टिकिया का बुरादा अपने कमंडलु के गरम जल में घोलकर फाउन्टेन पेन से डुबोकर उन्होंने सदैव लेखन कार्य किया है। चौबीस घंटे की मर्यादा के बाद पुनः कमंडलु के गरम-प्रासुक जल से पेन की निब धोकर दूसरी नई स्याही घोलकर लिखना यही उनका दैनिक लेखन क्रम है। सन् १९६९-७० में अष्टसहस्री अनुवाद की ९ कापियाँ तो कच्ची पेंसिल से लिखी हैं और १ कापी स्याही से लिखी है। मैंने प्रायः सभी लेखक आचार्यों, मुनियों, आर्यिकादिकों को बॉलपेन और इंक भरे पेन प्रयोग करते देखा है, मात्र एक पूज्य माताजी को ही इस प्रकार प्रासुक लेखनी से लिखते देखकर हृदय श्रद्धा से अभिभूत हुए बिना नहीं रहता। पाठकों का उनकी इस विशेषता पर शायद ध्यान आकर्षित न हो, किन्तु यह शुद्ध प्रासुक लेखनी आर्यिका श्री की बाह्य एवं अंतरंग पवित्रता को चिरकाल तक दर्शाती रहेगी। हस्तिनापुर तथा आस-पास नगरों का मंगलमयी प्रवासभगवान ऋषभदेव की प्रथम पारणा स्थली शांति, कुंथु, अरहनाथ की कल्याणक भूमि एवं अनेक इतिहासों को अपने गर्भ में संजोए हुए हस्तिनापुर नगरी ऐतिहासिक एवं पौराणिक तो है ही, जम्बूद्वीप के निर्माण ने इस चेतना के स्वरों में नवजीवन प्रदान कर दिया है। अपनी कर्मभूमि एवं तपोभूमि जंबूद्वीप स्थल पर निर्मित 'रत्नत्रय निलय' वसतिका में प्रायः पूज्य माताजी का ससंघ वास्तव्य रहता है। उनकी शारीरिक अशक्तता ने जहाँ उन्हें हस्तिनापुर में अधिक प्रवास के लिए बाध्य किया है, वहीं देश-विदेश की जनता को उनसे असीम लाभ प्राप्त हो रहा है। जम्बूद्वीप दर्शनार्थ आने वाले अधिकतर यात्रियों को यहाँ यदि आस-पास में बिहार कर रही ज्ञानमती माताजी के दर्शन नहीं होते हैं तो वे अपनी यात्रा अधूरी समझकर उन्हें ढूंढ़ते हुए कहीं न कहीं पहुँचकर दर्शन करके ही यात्रा को पूर्ण मानते हैं। सन् १९८९-९० में जब बड़ौत, मोदीनगर, मेरठ, अमीनगरसराय आदि नगरों में शीतकालीन प्रवास के समय देश के सुदूरवर्ती प्रान्तों से आये हुए भक्तगण स्थान का पता लगा-लगाकर दर्शनार्थ पहुँचे। उस समय बड़ौत के निकट एक पोयस नामक बहुत छोटे से ग्राम में विदेश (जापान) से पधारे हुए योशिमाशा मिचिवाकी पूज्य माताजी एवं संघ के दर्शन कर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उनके साथ में पधारे डॉ. अनुपम जैन ब्यावरा (म.प्र.) ने उन्हें जैन साधुओं के पद विहार, कठिन तपश्चर्या आदि के विषय में बतलाया, जिसे सुनकर वे बड़े प्रभावित हुए। इसी प्रकार गत सन् १९९१ में हस्तिनापुर से ५० कि.मी. दूर सरधना नगर में पूज्य माताजी का जब संघ सहित चातुर्मास हुआ, तब वहाँ प्रतिदिन मेला-सा लगा रहा। राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश आदि अनेक प्रान्तों से यात्री बसों का तांता लगा रहा। सरधना निवासी बड़ी प्रसन्नतापूर्वक अतिथियों का आतिथ्य सत्कार करते तथा अपने नगर को एक जीवन्त तीर्थ मानते हुए फूले नहीं समाते । हस्तिनापुर के आस-पास सैकड़ों ग्रामों एवं शहरों में विशाल जैन समाज है, उन सभी की अपने-अपने नगरों में माताजी को ले जाकर सानिध्य प्राप्त करने एवं ज्ञान लाभ लेने की तीव्र अभिलाषा है, किन्तु विहार करने में लीवर गड़बड़ हो जाने के कारण डाक्टर, वैद्य, हकीम माताजी को चलना हानिकारक बतलाते हैं। इसीलिए "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्" का सूत्र अपनाते हुए माताजी भी हस्तिनापुर प्रवास में अपना आत्मिक हित समझती हैं। यहाँ उनकी रत्नत्रय साधना, ज्ञानाराधना तो समुचित चलती ही है, सारे देश का जैन-अजैन जनता भी उनसे हस्तिनापुर आकर जितना लाभ प्राप्त करती है उतना शायद किसी नगर में संभव नहीं है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy