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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
प्रतिमा की हो चुकी हैं।
चातुर्मास कहाँ-कहाँ? - सन् १९५२ में गृह परित्याग के बाद लगभग ४-५ माह तक तो ब्रह्मचारिणी अवस्था में कु. मैना ने बिताया, चूँकि उस समय काफी संघर्ष एवं सामाजिक विरोधों के कारण वे दीक्षा न ले सकी थीं। पुनः उचित अवसर पाते ही सन् १९५३ में उन्होंने क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की तथा सन् १९५६ में आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर लगभग पूरे भारत की पदयात्रा करते हुए खूब धर्म प्रभावना की एवं अद्यावधि कर रही हैं। उनके अब तक ४० चातुर्मास निम्न स्थानों पर सम्पन्न हो चुके हैं१. टिकैतनगर (उ.प्र.)-१९५३, २. जयपुर (राज.)-१९५४, ३. म्हसवड़ (महाराष्ट्र)-१९५५, ४. जयपुर खानियां-१९५६, ५. जयपुर खानिया-१९५७, ६. ब्यावर (राज.)-१९५८, ७. अजमेर (राज.)-१९५९, ८. सुजानगढ़ (राज.)-१९६०, ९. सीकर (राज.)-१९६१, १०. लाडनूं (राज.)-१९६२, ११. कलकत्ता (प. बंगाल)-१९६३, १२. हैदराबाद (आंध्र प्रदेश)-१९६४, १३. श्रवणबेलगोल (कर्नाटक)-१९६५, १४. सोलापुर (महाराष्ट्र)-१९६६, १५. सनावद (म.प्र.)-१९६७, १६. प्रतापगढ़ (राज.)-१९६८, १७. जयपुर (राज.)-१९६९, १८. टोंक (राज.)-१९७०, १९. अजमेर (राज.)-१९७१, २०. दिल्ली-पहाड़ी धीरज-१९७२, २१. दिल्ली-नजफ़गढ़-१९७३, २२. दिल्ली-दरियागंज-१९७४, २३. हस्तिनापुर (बड़े मंदिर में)-१९७५, २४. खतौली (उ.प्र.)-१९७६, २५. हस्तिनापुर (बड़ा मंदिर)-१९७७, २६. हस्तिनापुर (बड़ा मंदिर)-१९७८, २७. दिल्ली (मोरीगेट)-१९७९, २८. दिल्ली (कम्मोजी की धर्मशाला)-१९८०, २९. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९८१, ३०. दिल्ली-कूचासेठ-१९८२, ३१. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९८३, ३२. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९८४, ३३. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९८५, ३४. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९८६, ३५. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९८७, ३६. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९८८, ३७. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९८९, ३८. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९९०, ३९. सरधना (मेरठ) उ.प्र.-१९९१, ४०. जम्बूद्वीप हस्तिनापुर-१९९२ ।
इनमें से प्रत्येक चातुर्मासों में शिविर, सेमिनार मंडल विधान आदि अनेक अविस्मरणीय वृहद् कार्य सम्पन्न हुए हैं। केशलोंचदिगम्बर मुनि-आर्यिकाओं की चर्या में केशलोंच उनका एक मूलगुण है, जो उत्तम, मध्यम, जघन्य विधि अनुसार दो, तीन, चार महीने में सम्पन्न करना होता है। पूज्य माताजी ने अपने ४० वर्षीय दीक्षित जीवन में १५० से अधिक बार केशलोंच किए। प्रारम्भ में तो दो से तीन माह के अन्दर ही शास्त्रोक्त मध्यम चर्यानुसार केशलोंच करना ही इन्हें इष्ट था। यह क्रम लगभग ३० वर्ष तक चला है, उसके पश्चात् शारीरिक अस्वस्थता के कारण ३ से ४ माह के बीच में करने लगीं, वह तारतम्य वर्तमान में भी चल रहा है।
चाहे कैसी विकट परिस्थितियाँ इनके जीवन में क्यों न आईं, किन्तु अपने मूलगुणों के पालन में पूज्य माताजी सर्वदा सावधान देखी गईं। ये हम शिष्यों को हमेशा यही शिक्षा देती रहती हैं कि "शरीर तो भव-भव में प्राप्त होता है, किन्तु संयम बड़ी दुर्लभता से मिला है। शरीर स्वास्थ्य के लिए संयम की कभी विराधना नहीं करनी चाहिए, चाहे वह छूटे अथवा रहे।"
इसी सूत्र का अनुसरण इन्होंने अपनी गम्भीर अस्वस्थता में भी किया है। सन् १९८५-८६ में जब म्यादी बुखार एवं पीलिया के कारण ये मरणासन्न अवस्था में थीं, तो भी अपने केशलोंच के समय का इन्हें परा ध्यान रहा और एक दिन मुझसे बोलीं-तुम मुझे राख लाकर दे दो, मैं आज लोंच करूँगी। समय अभी ८-१० दिन शेष था ४ माह में, किन्तु उठकर अपने हाथों से ही अपने सिर के पूरे केशों का लोंच किया। मैंने कुछ सहारा लगाने का प्रयत्न भी किया, किन्तु प्रारंभ से ही अपने हाथ से करने की आदत होने के कारण धीरे-धीरे स्वयं करती रहीं, मुझे एक बाल भी न उखाड़ने दिया।
इस दृश्य से हम सभी आश्चर्यचकित थे, क्योंकि उन दिनों माताजी अशक्तता के कारण दीर्घ शंका, लघु शंका के लिए खड़ी भी नहीं हो पाती थीं। यहाँ तक कि कुछ दिन तक करवट भी स्वयं बदलने में असमर्थ रहीं। मेरी लगभग २४ घंटे उनके पास ड्यूटी होती थी और सभी शिष्यगण परिचर्या में लगे हुए थे।
ऐसे गम्भीर अस्वस्थ क्षणों में दो घंटे लगातार बैठकर अपने हाथों से केश उखाड़ना मात्र कोई देवी शक्ति एवं असीम आत्मबल का ही प्रतीक था। तपस्या की इसी दृढ़ता ने इन्हें सदैव नवजीवन प्रदान किया है। इनकी छत्रछाया मुझे भी ऐसी चारित्रिक दृढ़ता प्रदान करे, यही जिनेन्द्र भगवान से प्रार्थना है।
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