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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ चारित्र संवर्द्धिका आर्थिकारण श्री ज्ञानमती माताजी [२७३ 1 भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में पट्काल परिवर्तन का नियम है। परिवर्तन उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के क्रम से होता है। अवसर्पिणी के चतुर्थकाल में मोक्षमार्ग और मोक्ष दोनों होते हैं, किन्तु पंचमकाल में मोक्षमार्ग होता है, मोक्ष नहीं वर्तमान हुण्डावसर्पिणी का पंचमकाल है, इसमें मोक्षमार्ग चल रहा है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की त्रिपुटी मोक्षमार्ग है । रत्नत्रयाराधक पुरुष और स्त्रियाँ दोनों ही मोक्षमार्ग पर चलने के अधिकारी हैं। पुरुष सकल परिग्रह के परित्यागपूर्वक निर्बन्ध दिगम्बर दीक्षा अंगीकार कर मोक्षमार्ग के पथिक बनकर मनुष्य जीवन की सार्थकता करते हैं। नारियाँ भी आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर मुक्तिपथ पर बढ़ती हैं। नारी जाति के गौरव को बढ़ाने वाली ब्राह्मी और सुंदरी ने सर्वप्रथम आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव के पादमूल में आर्थिकावत अंगीकार किये थे। अनन्तर सभी तीर्थंकरों के पादमूल में अनेक नारियों ने आर्यिकाव्रत अंगीकार कर जीवन धन्य बनाया। भगवान् महावीर की शासन परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द आदि सभी आचार्यों के संघों में आर्यिकाएँ थीं। आर्यिका संघ गणिनी आर्यिका के संरक्षण में यत्र-तत्र सर्वत्र विहार करते रहे । - डॉo श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत वर्तमान में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज ने उत्तरभारत में दिगम्बर जिनधर्म की महती प्रभावना की, उन्होंने अनेक आर्यिका दीक्षाएँ दीं। आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज के पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर जिनधर्म के उन्नायक तपोनिधि हुए, इनसे जिन मोक्षाभिलाषी महानुभावों ने जिनदीक्षा ग्रहण की, उनमें आस्था और दृढ़ता की मूर्ति आर्यिकारत्न १०५ श्री ज्ञानमती माताजी निज पर को प्रद्योतित करती हुई ज्योतिर्मय जीवन की लौ सदृश निज पर के हित साधन में निरत है। ज्ञान और चारित्र को जीवन का अभिन्न अंग बनाने पर भी माताजी की परिस्थितियों के झंझावात घेरे में घेरने का उपक्रम करते, किन्तु उनको शक्तिहीन कर चारित्र की अभिवृद्धि में सफल रहीं। सत्य है जिस जीवन में आदर्श के प्रति निष्ठा और चारित्र में दृढ़ता भरी हुई है, वह जीवन प्रतिकूल परिस्थितियों से कभी भी पराजित नहीं हो सकता। । चारित्र की प्रधानता माताजी के स्वयं के जीवन में है और चारित्र तथा चारित्रधारियों के प्रति विशिष्ट अनुराग भी है। आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने चारित्र को ही आत्मा का धर्म माना है माताजी ने पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों का महानता से अध्ययन कर चारित्र को अपने जीवन में प्रधानता दी और साथ ही अनेक भव्यात्माओं को चारित्र धारण करने की प्रेरणा प्रदान की माताजी को पूर्ण अनुगम है कि इन्द्रिय भोग-निश्चय ही अनथों की खान होते हैं। क्षणभर के लिए सुखमय तथा बहुत समय के लिए दुःखमय होते हैं, अतिदुःखमय तथा अल्पसुखमय होते हैं यह जीव संसार में भटकता रहता है, इस कार्य में उसके कर्म ही कर्म बन्धनों का कारण हैं; अतः गुरु की शरण में जाना श्रेयस्कर है। गुरू कर्त्तव्य-मार्ग पर दृढ़ रखते हैं। आचार्य श्री देशभूषण आचार्य श्री वीरसागर महाराज दोनों ही ने माताजी में दृढ़ आस्था और पुरुष को देखकर जिनधर्म प्रभावना के कार्यों का आदेश दिया। माताजी ने व्रत चारित्र की रक्षा करते हुए जम्बूद्वीप प्रतिकृति संरचना कराने का दृढ़ संकल्प किया और पूर्ण सफलता प्राप्त की; क्योंकि जीवन में वह मनुष्य निश्चय ही सफल होता है, जो अडिग आस्था के साथ अपने कर्त्तव्य को पूरा करता चलता है। आपने न्यायशास्त्र के साथ जैन सिद्धान्त का तलस्पर्शी वैदुष्य अर्जित किया। जैन भूगोल संबंधी विशाल वाङ्मय से समस्त विइत्जगत् को आपने परिचय कराया। ज्ञान के साथ संयम की अभिवृद्धि की । संयम साधना को तेजस्वी बनाने के लिए तथा आत्म-ज्योति को जाग्रत करने के लिए विचार और विवेक का आश्रय आवश्यक है। विचार और विवेकपूर्वक पालन किया हुआ आचार ही जीवन को ज्योतिर्मय बना सकता है अतः माताजी की दृढ़ धारणा रही कि दीक्षा के पूर्व ज्ञान और विवेक में परिष्कृत होना चाहिये । (१) Jain Educationa International चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोतिणिोि । मोहक्खोहविहीणो परिणामोअप्पणोहु समो ॥ प्रवचनसार गा. ६ ।। । वस्तुतः दीक्षा की पात्र संसार शरीर भोगों से पूर्व विरक्तभाव वाली भव्य आत्माएँ ही होती हैं वैराग्य के अभाव में बाह्यपात्रता भी अपात्रता में परिवर्तित हो जाती है। साङ्गोपाङ्ग, लोक प्रशंसनीय, सज्जातिपना अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य कुलोत्पन्न कन्या या महिला आर्यिका या क्षुल्लिका दीक्षा की पात्र होती है। रत्नत्रय अङ्गीकार कर मोक्षमार्ग पर पात्र ही निर्विकार भाव से बढ़ सकता है, अन्य नहीं; अतः आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने उन्हीं भव्यात्माओं को दीक्षा दी और दिलवायी, जो आगम में वर्णित पात्रता के लिए योग्य थीं। माताजी ने उन नारियों को दीक्षा नहीं दी, जो पारिवारिक कलह या लोकापवाद आदि के कारण दुःखित मन से गृह को छोड़कर आयौं। हाँ, स्थितिकरण अवश्य किया। चारित्र जीवन का सर्वश्रेष्ठ गुण है । चारित्र की ही पूज्यता है। अतः चारित्र अंङ्गीकार करने वाली आत्मा को पूर्ण For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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