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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
क्योंकि इसके पहले मैंने धार्मिक अध्ययन किया नहीं था। माताजी से जब मैं कहता कि समझ में नहीं आ रहा है तब माताजी कहतीं "पठितव्यं खलुपठितव्यं अग्रे अग्रे स्पष्टं भविष्यति" पढ़ते चलो-पढ़ते चलो सब आगे समझ में आ जायेगा। हुआ भी ऐसा ही। मात्र २ माह में शास्त्री के ३ वर्ष का कोर्स मुझे पढ़ा दिया गया और अन्य शिष्य-शिष्याओं के साथ परीक्षा देकर मैंने प्रथम स्थान प्राप्त किया। पुनः भाई साहब मुझे लेने आये तब माताजी ने कहा कि इसका क्षयोपशम बहुत अच्छा है घर नहीं जाने देंगे। लेकिन भाई साहब मुझे घर ले गये थे। इस समय संघ टोंक से किशनगढ़ आ चुका था। अतः मैं किशनगढ़ से घर टिकैतनगर वापस चला गया। यहाँ आचार्य श्री धर्मसागरजी व आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज दोनों संघों का सम्मिलन हुआ था। आचार्य धर्मसागरजी के संघ के साथ ही आर्यिका ज्ञानमती माताजी थीं तथा आचार्य ज्ञानसागरजी के साथ नवदीक्षित मुनि विद्यासागरजी थे यहाँ पर पूज्य माताजी व मुनि विद्यासागरजी के मध्य काफी धार्मिक चर्चायें होती थीं। मुझे भी यह सब देखने व सुनने का अवसर मिला। इसके बाद आचार्य श्री धर्मसागरजी का विहार अजमेर चातुर्मास के लिए हो गया।
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मैं अजमेर चातुर्मास में पुनः दर्शनों के लिए आया। अजमेर में मेरी मां ने ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से आर्यिका दीक्षा आ० श्री धर्मसागरजी के करकमलों से लेकर आर्यिका रत्नमती नाम प्राप्त किया। इसके पश्चात् मैं पुनः घर वापस चला गया। उसके बाद टिकैतनगर में मुझे भाईसाहब ने एक नई दुकान कपड़े की खुलवा दी। इसकी सूचना मैंने पत्र द्वारा माताजी को भेजी। दुकान खुलते ही पूज्य माताजी ने मोतीचंदजी को हमारे पास भेजा कि माताजी ने बुलाया है और हम मातीजी के पास आ गये। इस समय पूज्य माताजी ब्यावर आ गई थीं, साथ में २ मुनि व ४ आर्यिकाएं थीं । माताजी ने पुनः समझाया कि गृहस्थरूपी कीचड़ में मत फँसो ले लो ब्रह्मचर्य व्रत । माताजी ने व इस बार रत्नमती माताजी ने भी प्रेरणा की, फलस्वरूप मैं ब्रह्मचर्य व्रत लेने के लिए तैयार हो गया और ब्रह्मचर्य व्रत भी माताजी ने कहा कि आचार्य श्री धर्मसागरजी से लेवो उस समय आ० श्री धर्मसागरजी नागौर में थे श्री मोतीचंदजी मुझे ब्यावर से नागौर ले गये और नागौर में आ० श्री धर्मसागरजी से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अप्रैल सन् १९७२ में ग्रहण कर लिया, यहां से जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। ब्रह्मचर्य व्रत लेने पर नागौरवासी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने मुझे गाजे-बाजे, जुलूस के साथ मंदिरों के दर्शन कराने ले गये। उसके बाद मैं ब्यावर आया, यहां भी ब्यावरवासियों ने मेरा सम्मान किया। अब माताजी ने कहा कि जावो दुकान पर बैठो, लेकिन जल्दी दुकान छोड़कर संघ में आ जाना। ऐसा ही हुआ, दुकान हमने भाइयों के हवाले कर घर से संघ में रहने के लिए स्थाई रूप से रहने का निर्णय कर लिया। वैसे तो संघ में रहना प्रतिदिन नये-नये घर भोजन करने जाना इत्यादि बड़ा अटपटा-सा लगता था लेकिन धीरे-धीरे अभ्यास होता गया। इस प्रकार पूज्य माताजी की प्रेरणा से जो मुझे २ वर्ष का छोड़कर आई थीं, उन्होंने मुझे पुनः मोक्षमार्ग में लगने के लिए अनेक प्रेरणाएं प्रदान कीं, अंततोगत्वा अपने पास बुला ही लिया। अब कुछ समय बाद संघ ब्यावर से दिल्ली आ जाता है और यहां से संघस्थ होने के साथ ही संस्थान के निर्माण प्रकाशन आदि कार्य का उत्तरदायित्व भी लेना पड़ता है। इस प्राथमिक इतिहास को आज लगभग २० वर्ष हो रहे हैं।
पूज्य माताजी के पास २० वर्ष रहकर समय-समय पर अनेक विशिष्ट अनुभव प्राप्त हुए हैं, उनमें से एक-दो को यहां संस्मरण के रूप में दे रहा हूँचारित्र एवं चर्चा में अत्यन्त कठोर :- अक्टूबर-नवम्बर १९८५ की बात है पूज्य माताजी को बहुत भयंकर सिरदर्द एवं बुखार हो गया- संग्रहणी की बीमारी तो पिछले २५ वर्षों से थी ही। कई-कई दिन बीतते चले गये- बुखार हटने का ही नाम नहीं लेता था माताजी एकदम कमजोर हो गई और स्थिति यह हो गई कि कुछ भी पेट में पचता नहीं था । आहार के समय जो भी दिया जावे तुरंत उल्टी हो जाती। मेरठ के प्रसिद्ध वैद्य विष्णुदत्त शर्मा जो कि मेरठ के प्रधान वैद्य थे- सुखदा फार्मेसी के वैद्य महावीर प्रसाद जैन मेरठ इनके अलावा इन्दौर से वैद्य धर्मचंदजी जैन को बुलाया गया तथा कटनी से वैद्य रघुवर दयाल जैन को बुलाया गया। ये दोनों वैद्य कई दिन तक हस्तिनापुर ही रहे। इस प्रकार तीन चार वैद्यों से परामर्श करके प्रतिदिन औषधि काढ़ा तैयार किया जाता और अगले दिन २४ घण्टे बाद प्रतीक्षा करते-करते कि अब माताजी को यह दवाई दी जायेगी अब उल्टी नहीं होगी, लेकिन जैसे ही दवाई पानी तथा कुछ आहार दिया जाता तुरंत उल्टी यह देखते-देखते स्थिति बिगड़ती चली गई, वैद्य लोग भी परेशान थे। अब माताजी के साहस का बाँध भी टूट गया और माताजी ने बुलवाकर हम लोगों से कहा कि अब तो सल्लेखना ले लूं ऐसी इच्छा है- यह रोग ठीक नहीं होगा बड़ी चिन्ता हुई। यह बात १७ नवंबर १९८५ की है। पिछले १७ दिनों से पेट में पानी भी नहीं पच रहा है, शरीर एकदम सूखकर कमजोर हो गया है, दर्द के मारे सिर फटा जा रहा है और वैद्य लोगों की औषधि काम नहीं कर रही है। उस समय की अत्यन्त नाजुक स्थिति देखकर हम लोग बहुत ही परेशान थे एकदम एक विचार मन में आया कि किसी डाक्टर को बुलाकर दिखा दिया जाये कि आखिर शरीर की स्थिति क्या है? यह विचार कर श्री अमरचंद जैन होमब्रेड मेरठ के पास पत्र लेकर आदमी भेजा कि कोई अनुभवी डॉक्टर जो निदान में कुशल होवे लेकर तुरंत हस्तिनापुर आवो श्री अमरचंद जैन पत्र पाते ही डॉक्टर ए०पी० अग्रवाल मेरठ को लेकर हस्तिनापुर आ गये। शाम को ७ बज रहे थे उन्होंने देखा, बोले इनको पीलिया है- हम लोगों ने कहा कि आंखें तो पीली हैं नहीं, पीलिया कैसे है? बोले लगभग पीलिया की स्थिति दिख रही है- लीवर बिल्कुल खराब हो चुका है। पहले इनका खून व पेशाब टेस्ट होगा और ग्लूकोज की बोतलें चढ़ानी पड़ेंगी, अन्यथा ये २४ घण्टे से ज्यादा अब नहीं चल सकेंगी, शरीर से सारा पानी निकल चुका है। हम लोग डॉक्टर साहब को अपने कार्यालय
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