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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४३ स्नेह से ज्ञान तक - ब्र० रवीन्द्र कुमार जैन, हस्तिनापुर सन् १९५२ टिकैतनगर की बात है जब मैं बिल्कुल अबोध था। मात्र २ वर्ष की मेरी उम्र थी - अपनी जीजी मैना के पास ही सोता था। उस समय की इतनी धुंधली-सी याद है कि मेरी गर्दन में एक फोड़ा हो गया था, जिसे चीर-फाड़ करने के लिए जर्राह आता था, जो घाव को साफ करके उसमें रूई की बत्ती डालकर मरहम भरता था, यह सब मेरी बाल्य सेवा मां की बजाय मैना जीजी ही किया करती थीं। उन्होंने मुझे गोद में खूब खिलाया है तथा बाल्य अवस्था की सभी सेवाएं की हैं। फिर भी मुझे २ वर्ष का छोड़कर कैसे वैराग्य पथ पर चली गईं- इसकी मुझे कुछ याद नहीं आ रही है। इस स्मरण हेतु उस समय का एक फोटो अवश्य प्रतीक है, जब मैना जीजी सफेद धोती पहनकर ब्रह्मचारिणी बन गई थीं और हम सभी परिवार के भाई-बहन एवं माता-पिता साथ में खड़े हैं। उस समय भाई-बहनों में सबसे बड़ी मैना जीजी थीं और सबसे छोटी कु० मालती जो केवल २२ दिन की, मां की गोद में थी। मैं २ वर्ष का था। बहन-भाई के इस वियोग के बाद भाई-बहन के रूप में पुनः मिलन नहीं हुआ। क्योंकि कुछ ही समय बाद मैना जीजी क्षुल्लिका वीरमती पश्चात् आर्यिका ज्ञानमती बन गई और परिवार से कोई सम्बन्ध नहीं रखा- सुख दुःख का पत्र व्यवहार भी नहीं रहा। आर्यिका रूप में प्रथम दर्शन :- ठीक १० वर्ष के अन्तराल के बाद १९६२ में आर्यिका ज्ञानमती माताजी के रूप में मुझे उनके लाडनूं राज० में प्रथम बार दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस समय बात ऐसे बनी कि हमारी एक और बड़ी बहन मनोवती पूज्य ज्ञानमती माताजी के दर्शनों के लिए मां को बहुत परेशान किये हुए थीं। घर में पिताजी व अन्य भाई-बहन कोई भेजने के लिए राजी नहीं थे। योगायोग से बहन मनोवती को एकदम दस्त बहुत होने लगे- जिससे टिकैतनगर से लखनऊ डाक्टर को दिखाने लाया गया। यहाँ से बड़े भाई तो इलाज के लिए छोड़कर घर चले गये और मनोवती ने फिर मां से बहुत जिद शुरू किया कि मझे माताजी (ज्ञानमती माताजी) के दर्शन करावो-कहां हैं माताजी। वे जबसे गई हैं हमने देखा नहीं है ऐसा कह कह कर मां को बहुत परेशान किया। उस समय मैं मां के पास लखनऊ में था। पता लगाया गया कि माताजी कहां हैं, तो ज्ञान हुआ कि राजस्थान में लाडनूं नगर है, वहाँ आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज का चातुर्मास हो रहा है, वहीं पर संघ में ज्ञानमती माताजी हैं। मां ने निर्णय किया कि चलो यहीं से लाडनूं चल दिया जाये। क्योंकि घर जाने के बाद तो कोई जाने नहीं देगा। घरवालों को शायद इस बात का भय लगा हुआ था कि ज्ञानमती माताजी के पास जो भी जाएगा कहीं उसे घर छोड़ने या दीक्षा के लिए न कहने लगें। शायद इसीलिए कोई दर्शनों के लिए भी नहीं जाता था। योगायोग से मां ने अपना कोई सोने का जेवर लखनऊ में बेच दिया और रास्ते के खर्च का हिसाब बनाकर लाडनूं की तरफ चलने को कहा। इस समय मैं लगभग १२ वर्ष का था। लाडनूं तक हम लोग पहुंच गये, वहां हुआ वही, जिस बात की आशंका रहती होगी। मनोवती घर वापस आने को ही राजी नहीं हुई बोलीं-मैं भी अपनी जीजी जैसी दीक्षा लूंगी। कई दिन निकल गये। आखिर मनोवती भी कुछ दिन रुकने का बहाना करके रुक गई। उस समय वहां पर मैंने माताजी के प्रथम दर्शन किये थे। उसके बाद वहां से हम मां के साथ घर वापस आ गये। वापस आने पर मां को पिताजी ने मनोवती को छोड़ने की बाबत जो कुछ गुस्सा-गर्मी की होगी-उसका यहां अंदाज लगाना कठिन है। अन्ततोगत्वा बहन मनोवती ने भी बाद में माताजी से हैदराबाद में क्षुल्लिका दीक्षा १९६४ में ले ली, पश्चात् आर्यिका दीक्षा १९६९ में आ० श्री धर्मसागरजी से लेकर आर्यिका अभयमती बन गईं जो आज त्याग-तपस्या लेखन आदि कार्यों में लगी हुई हैं। प्रतापगढ़ में पुनः दर्शन :- सन् १९६८ में प्रतापगढ़ में आ० श्री शिवसागरजी के संघ के साथ ही पूज्य माताजी का चातुर्मास हो रहा था। उस समय हमारे माता-पिता एवं बड़े भाई साहब कैलाशचंद, भाभी आदि ने वर्ष में एक बार संघ में आकर चौका लगाकर साधुओं को आहार देने की परंपरा प्रारम्भ की थी। इस बार मैं भी दर्शनों के लिए आया था। मैं लखनऊ विश्वविद्यालय में बी०ए० का अध्ययन करने इसी वर्ष गया था। माताजी ने मुझसे खूब बात की और समझा-बुझाकर कहा कि अच्छा २ वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत ले जावो और उसके बाद फिर हमारे पास आकर बाद में शादी या व्यापार करना। ठीक है इतना मंजूर कर लिया था। टोंक में दर्शन :- बी०ए० की परीक्षा पास करने के बाद अब माताजी के पास एक बार आना तो था ही। टोंक राजस्थान में फरवरी १९७१ में आने का सुयोग मिला- यहाँ भी भाई साहब कैलाशचंदजी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर आये थे, जभी साथ में मुझे ले आये थे। यहां पर पूज्य ज्ञानमती माताजी ने एक अलग ही महाविद्यालय जैसा खोल रखा था- सुबह से शाम तक ७-८ घण्टे शिष्य-शिष्याओं एवं साधुओं को पढ़ाना एक ही काम दिख रहा था। बड़े-बड़े ग्रन्थ अष्टसहस्री-राजवार्तिक-कर्मकाण्ड आदि चल रहे थे, माताजी ने हमसे कहा कि संघ के कई विद्यार्थी शास्त्री न्यायतीर्थ की परीक्षा दे रहे हैं, तुम भी कुछ पढ़ लो। मुझे बहुत समझाया और २ माह पढ़ाई कर लो- शास्त्री बना देंगे ऐसा कहकर रोक लिया। इस बार रुक गया मैं। अगले दिन से मेरी भी पढ़ाई शुरू करा दी- विषय प्रारम्भ में ५-७ दिन तक तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहे थे, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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