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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२६३ सन् १९५८ में मोतीचंदजी ने स्वयमेव भगवान के पास आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया, पुनः सन् १९६७ में आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के संघ का जब सनावद में चातुर्मास हुआ, तब पूज्य माताजी की प्रबल प्रेरणा से ये उनके संघस्थ शिष्य बने। उसके बाद से आज तक आप गुरु के सानिध्य में ही धर्माराधन आदि कर रहे हैं। पूज्य माताजी द्वारा किये गये प्रत्येक लघु एवं वृहत् कार्य को प्रारंभ करने का प्रथम श्रेय आपने प्राप्त किया है। जंबूद्वीप रचना निर्माण के पश्चात् ब्र. मोतीचंदजी ने अपनी दीक्षा की भावना प्रकट की, अतः पूज्य माताजी की प्रेरणा से आचार्य श्री विमल सागर महाराज के संघ का हस्तिनापुर पदार्पण हुआ और ८ मार्च सन् १९८७ को आपने क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण कर "मोतीसागर" नाम प्राप्त किया। २ अगस्त सन् १९८७ को पूज्य माताजी ने दिग. जैन. त्रि. शो. संस्थान की भावी योजनाओं के आधार पर आपको यहाँ के "पीठाधीश" पद पर आसीन किया है। गुरु आज्ञानुसार आप सतत ज्ञान एवं संयम का पालन करते हुए जम्बूद्वीप संस्थान को अपना निर्देशन प्रदान कर रहे हैं। क्षुल्लिका श्री शांतिमती माताजीमध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में ग्राम "मोहनगढ़" में श्री धर्मदास मोदी की ध.प. श्रीमती भूरी बाई ने वि.सं. १९८७ में एक कन्या को जन्म दिया, जिसका नाम रखा–कस्तूरीबाई। १४ वर्ष की अवस्था में ग्राम "मवई" के दानवीर बजाज नाथूराम जी के छोटे भाई "श्री छक्कीलालजी" के साथ इनका विवाह हुआ। १ पुत्र एवं तीन पुत्रियों की माँ कस्तूरीबाई लगभग २२ वर्ष तक पति के साथ रहीं, पश्चात् वि.सं. २०२३ में पति का देहावसान हो गया। पुनः वि.सं. २०३५ में फाल्गुन कृ. पंचमी को आचार्य श्री पार्श्वसागरजी (आचार्य श्री महावीर कीर्ति के शिष्य) से टीकमगढ़ के पास “बमोरी" ग्राम में क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण कर "शांतिमती माताजी" बन गईं। अब आप लगभग १३ वर्षों से आर्यिका श्री अभयपती माताजी के साथ रहती हैं और उन्हें ही विद्यागुरु मानती हैं। ६२ वर्ष की इस वद्धावस्था में आप निर्विघ्न रत्नत्रय साधना में अग्रसर हैं। क्षुल्लिका श्री श्रद्धामती माताजीआज से लगभग ६५ वर्ष पूर्व बिहार प्रान्त के "आरा" शहर में जन्मी "श्यामादेवी" के पिता का नाम “राजेन्द्र प्रसाद जैन" तथा माता का नाम "चंदा देवी" था। टिकैतनगर के श्रेष्ठी श्री पुत्तीलाल जैन के सुपुत्र श्री नन्हूमल जैन के साथ “श्यामाबाई" का विवाह हुआ। उसके बाद गृहस्थावस्था में आपने ३ पुत्र एवं ३ पुत्रियों को जन्म दिया। लगभग ४३ वर्ष की आपकी उम्र थी, जब पति का आकस्मिक देहावसान हो गया। सन् १९८५ में आपने पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का सानिध्य प्राप्त किया, पुनः सप्तम प्रतिमा आदि व्रतों को अंगीकार कर १५ अक्टूबर सन् १९८९ कार्तिक कृ. एकम को पूज्य माताजी से ही हस्तिनापुर में क्षुल्लिका दीक्षा धारण कर "श्रद्धामती" नाम प्राप्त किया। निबंध रूप से इस वृद्धावस्था में भी आप धर्मध्यान एवं गुरु वैयावृत्ति में संलग्न रहती हैं। बाल ब्र. श्री रवीन्द्र कुमारजीनवयुवकों के आदर्श भाई रवीन्द्रजी का नाम आज चिरपरिचित हो गया है, क्योंकि हस्तिनापुर में जंबूद्वीप कार्यालय की प्रत्येक गतिविधि इनके निर्देशन में ही चलती है। पूज्य गणिनी आर्यिका श्री के लघुभ्राता रवीन्द्रजी का जन्म ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी सन् १९५० में हुआ। पिता श्री छोटेलालजी एवं माता मोहिनी ने अपने एक मात्र इसी पुत्र को लखनऊ यूनिवर्सिटी में बी.ए. तक अध्ययन कराया। स्नातक होने के बाद भी संसार के मोहचक्र में फंसना इन्होंने स्वीकार नहीं किया और सन् १९७२ में पूज्य ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से आचार्य श्री धर्मसागर महाराज से आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया। उसके बाद से पूज्य माताजी के पास सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर आप गृहविरत हो चुके हैं। जंबूद्वीप स्थल आपकी विशेष कर्मभूमि है। यहीं से अपनी धार्मिक क्रियाओं का पालन करते हुए संस्था संचालन, सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका का सम्पादन, पूज्य माताजी द्वारा लिखित सैकड़ों ग्रंथों का सम्पादन आदि कर रहे हैं। आप जहाँ दि.जैन.त्रि.शो. संस्थान के अध्यक्ष हैं, वहीं अखिल भारतीय युवा परिषद् के भी अध्यक्ष पद का भार संभाल रहे हैं। अपनी ओजस्वी वाणी, स्पष्टवादिता, सरलता आदि गुणों के द्वारा भाई रवीन्द्रजी से आज सारा देश परिचित हो चुका है। पूज्य माताजी से प्राप्त संस्कारों के अनुसार संघर्ष झेलकर भी सत्य को उजागर करना आपकी पहचान बन गई है। "भाईजी" के नाम से जाना जाने वाला यह व्यक्तित्व नवयुवकों के लिए "कर्मयोगी' के रूप में सचमुच अनुकरणीय है। बाल ब्र. धरणेन्द्र जैनदक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रदेश में जन्मे धरणेन्द्र कुमार जैन ८-१० वर्ष की उम्र से ही श्रवणबेलगोल की "गोम्मटेश विद्यापीठ" में वहाँ के कर्मयोगी भट्टारक श्री चारुकीर्तिजी के संरक्षण में रहे हैं। लगभग ढाई वर्ष पूर्व इन्होंने हस्तिनापुर आकर पूज्य गणिनी आर्थिका श्री के दर्शन किये, पुनः भट्टारकजी की आज्ञा से पूज्य माताजी के पास ही अध्ययनार्थ आ गए। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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