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________________ २२८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ब्रह्मचारिणी बन जाने का, ऐसा अवसर मिले कैसे ॥ ५ ॥ मैना वीरमती बन करके, महावीरजी में महकी । युग को मिला अलौकिक सम्बल, साध हुई पूरी सबकी ॥ ६ ॥ अति उत्कृष्ट आर्यिका दीक्षा, ग्रहण किये फिर ज्ञानमती । वीर व्रतों की अथक साधना, धारण करके बनी व्रती ॥ ७॥ भारतीय संस्कृति की रक्षा, प्रतिपल मानवता कल्याण । ज्ञानमती की ज्ञानराशि से, नये विश्व का नव-निर्माण |॥ ८ ॥ स्नेह-शांति-सद्भाव-समन्वय, युग के लिए यही वरदान । ज्ञानमती के ज्ञानस्रोत से, बन सकते हम श्रेष्ठ महान ॥ ९ ॥ महिमामय माता शतायु हों, अर्पित शतशः उन्हें प्रणाम । यथानाम गुण वैसा उनमें, अजर-अमर हो उनका नाम ॥१०॥ अभिवन्दन यह ग्रन्थ समर्पित, माता के ममता से आशा । पाँच व्रतों से विश्व सँवारें, यही आज की है भाषा ॥ ११ ॥ शत-शत वन्दन अभिनन्दन है - पं० बाबूलाल जैन फणीश-ऊन, खरगोन [म०प्र०] शांति, कुन्थु, अर नाथ चरण में, लिया शरण जिन वंदन है । परम विदुषी आर्यिकारत्न "ज्ञानमती" शत-शत अभिनन्दन है । (१) आदिकाल की पावन नगरी, हस्तिनापुर अति प्यारी । आदि प्रभू श्री वृषभ देव से. पावन धरा अति महकाई । शांति, कुंथु अरनाथ प्रभु के, चार कल्याणक से हर्षायी । कौरव-पांडव ने वसुधा पर, आकर युद्ध किया था । भाई से भाई के लड़ने का, प्रलयंकर युद्ध मचा था । जोरू जमीन जर क्रिया आदि से करती मन को क्रन्दन है । परम विदुषी श्री ज्ञानमती को, शत-शत वंदन अभिनन्दन है ।। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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