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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४७७ महत्त्व ही स्वयं को पहचानने का है। माताजी की स्वयं की साधना का ही प्रतीक है यह इशारा । इसी तरह सोलहवीं गाथा में पुद्गल द्रव्यों की पर्यायों का वर्णन किया है। वहाँ भी माताजी ने पद्य रचना में बतलाया है कि ये पर्यायें तो विनश्वर हैं। इन पर्यायों से हे आत्मा! तेरे से कोई संबंध नहीं। इन सबसे तू निराला है। इसलिये निजआत्मा को पहिचानो। और भी कई गाथाओं की पद्य रचना में माताजी ने अनेक विशेषताओं को लेकर मानव को संबोधित किया है। मेरा तो मत यह है कि माताजी एक स्वतंत्र निश्चल विचारों की साधिका हैं और ज्ञान-ध्यान, तप ही उनका जीवन है। इन पद्य रचनाओं में माताजी ने अंत में पाठ करने वालों से भी कहा है कि ज्ञानमती साध्वी किया, भाषामय अनवाद । गद्य पद्य रचना मधुर करो, भव्य जन पाठ। माताजी ने इस महान् ग्रंथ की पद्य रचना करके साहित्य जगत् का बहुत बड़ा उपकार किया है। साथ ही माताजी ने यह भी बतलाने का प्रयास किया है, द्रव्य संग्रह सैद्धांतिक ग्रन्थ है, जिसमें वस्तुस्वरूप को समझाते हुए आचार्य नेमीचंद्रजी ने बतलाया है कि व्यवहार और निश्चय दो दृष्टि हैं। एकांत दृष्टि से वस्तु स्वरूप सही रूप से नहीं समझा जा सकता। माताजी की यह एक अनुपम देन है जो हम सबको सदा स्मरणीय रहेगी। "तीर्थंकर महावीर और धर्मतीर्थ" समीक्षक-पं० सत्यन्धर कुमार सेठी, उजैन आरतीर्थ परम श्रद्धेया १०५ श्री गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी द्वारा विरचित "तीर्थकर महावीर" और धर्म तीर्थ नामक पुस्तिका पढ़ने का मुझे सौभाग्य मिला। पूज्य माताजी ने अनेक बड़े-बड़े ग्रंथों की टीकायें की हैं तथा स्वतंत्र साहित्य सर्जन भी किये हैं। लेकिन यह पुस्तिका अपने आप में अनोखी है। इस छोटी-सी रचना को तीर्थङ्कर महावीर रचकर पूज्य माताजी ने “गागर में सागर" भर दिया यह कहावत चरितार्थ कर दी है। विश्ववंद्य भगवान महावीर के जीवन और उनके सिद्धांतों पर तो प्रकाश डाला ही है लेकिन माताजी ने भगवान् ऋषभदेव से लेकर अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के बाद तक संक्षिप्त में पूरा जैन इतिहास का चित्रण करके सामान्य स्वाध्याय प्रेमी को यह समझने का अपूर्व अवसर दिया है कि जैन धर्म का उद्गम भगवान महावीर से नहीं, अनादिकाल से ही वह प्रचलित है। साथ में यह भी समझने की बात है कि भगवान् ऋषभदेव ने राष्ट्र निर्माण के लिये मानव को वे शिक्षायें प्रदान की जिनसे सम्पूर्ण राष्ट्र में भाईचारा, प्रेम वात्सल्य और अस्तित्व की भावनाओं का उदय हुआ और सम्पूर्ण राष्ट्र में नवजीवन की भावनाओं का प्रचार और प्रसार हुआ। माताजी ने इस छोटी-सी पुस्तक में संक्षेप रूप में स्याद्वाद को समझाने का जो प्रयास किया है वह इतना सरल है कि सहजतया यह समझ में आ जाता है कि जैनों का यह स्याद्वाद मानव जीवन को एक ऐसा चिंतन देता है जिससे मानव में कभी भी पंथ भेद जातिगत भेद व एकांत पक्ष की भावनायें ही पैदा नहीं हो सकतीं। इसी तरह अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल का संक्षिप्त वर्णन करके यह बतला दिया है कि अनादिकाल से सृष्टि में अपने आप परिवर्तन होता आ रहा है। इसमें कोई भी ईश्वरीय शक्ति काम नहीं देती। न सृष्टि का कोई संहार करता और न इसकी रचना करता है। इस तरह चारों तरफ दृष्टिकोण को रखते हुए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस संक्षिप्त जीवनी में पूज्य माताजी ने सारभूत तथ्य को बतलाते हुए जैन जगत् को एक अमूल्य भेंट दी है। जो हमारे लिए हमेशा ही स्मरणीय रहेगी। मैं तो इसको अनूठी रचना मानता हुआ उन महासती के चरणों में श्रद्धा प्रकट करता हुआ अपने आपको धन्य मानता हूँ। 38कासनसनी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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