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________________ ४७६] संस्थान दिगम्बर जैन त्रिलोक संस्थान, हस्तिनापुर, मेरठ के भी हम ऋणी हैं। वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला के ८० वें पृष्ठ की न्यौछावर राशि मात्र है १०रु० । सम्पादक ब्र० रवीन्द्र जैन भी तन्मयता एवं समर्पण भाव से कार्यरत हैं, आपको श्रुत भक्ति श्लाघनीय है। कु० माधुरी शास्त्री (वर्तमान में आर्यिका चन्दनामतीजी जी की प्रस्तावना तथा श्री मोतीचन्द्र जैन सर्राफ (वर्तमान में श्रुल्लक मोतीसागर जी का लेखिका परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ में अतिरिक्त सौन्दर्यवृद्धि करता है, पूज्यमातुश्री जीवन्त हो- हम अल्पवृद्धि, अल्पक्षयोपशमी जीवों पर वात्सल्य बनाये रखें, पुस्तक का शीर्षक "कुन्दकुन्द का भक्तिराग" प्रभावी एवं सार्थक है। कुन्दकुन्दाचार्य को मात्र निश्चयनय का पक्षधर मानने वालों के लिए चुनौती भी है। द्रव्यसंग्रह दुव्य संग्रह (पद्यादसहित) आयिका ज्ञानमती वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला समीक्षक- पं० सत्यन्धर कुमार सेठी, उज्जैन दिगम्बर जैन समाज में द्रव्यसंग्रह एक ऐसा ग्रंथ है. जो बच्चे से लेकर बूढ़े तक बहुचर्चित है। इस ग्रन्थ के प्रणेता है दिगम्बर जैन आचार्य परम्परा के महाविद्वान् सिद्धांत चक्रवर्ती १०८ श्री नेमीचंद्राचार्य जिन्होंने गोम्मटसार जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड जैसे सिद्धांत ग्रंथों की रचना करके जैन वाङ्मय का वैभव बढ़ाया है। इन ग्रन्थों के स्वाध्याय करने से मानव हृदय में वे भावनायें उदित होती हैं जिनके उदित होने पर मानव का चिंतन अनेक विकल्पों से हटकर एकाग्र हो जाता है। द्रव्य संग्रह की रचना प्राकृत भाषा में है। परम श्रद्धेय माताश्री ज्ञानमती ने पद्य रचना करके उसको इतना सुलभ बना दिया है कि छोटे से छोटा बालक भी उनको गुनगुनाने लगता है। देखिये ग्रंथ का मंगलाचरण जिसमें प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभ को नमस्कार किया है और बतलाया है कि देव इन्द्रों कर वंदित जीवादि तत्त्वों का जिन्होंने निर्देश दिया है। वह गाथा इस प्रकार है Jain Educationa International जीवमजीवं दव्वं जिणवर व सहेण जेण णिद्दिट्ठे । देविदंविंद वंदे, वंदे तं सव्वदा सिरसा ॥ १ ॥ उसी का पद्यानुवाद देखें जिनवर में श्रेष्ठ सुतीर्थंकर जिनने जग को उपदेशा है। बस जीव अजीव सुद्रव्यों को विस्तार सहित निर्देशा है ॥ सौ इन्द्रों से वंदित वे प्रभु उनको मैं वंदन करता हूँ । भक्ति से शीश झुकाकर के नित प्रति अभिनंदन करता हूँ ॥ इस पद्म में माताजी ने मूल मंगलाचरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण शब्दों में भगवान् ऋषभदेव के प्रति श्रद्धा प्रकट की है। शब्दों के विन्यास भी बड़े मार्मिक हैं। माताजी की तर्कणा शक्ति भी बड़ी बेमिशाल है। इसी तरह आप गाथा ४ का भी अवलोकन कीजिये। मूल ग्रंथ निर्माता ने तो सिर्फ उपयोगों का ही वर्णन किया है— जैसे अब माताजी की पद्यरचना का आस्वादन लीजिए उवओगो दुवियप्पो दंसण णाणं च दंसणं चदुधा । चक्खु अचक्खु ओही दंसण मध केवल ये || उपयोग कहा है दो प्रकार दर्शन औ ज्ञान उन्हें जानो, पहले दर्शन के चार भेद उससे आत्मा को पहिचानो ॥ चक्षु दर्शन बस नेत्रों से होता अचुक्ष दर्शन सबसे, अवधि दर्शन केवल दर्शन ये दोनों आत्मा से प्रगटें। माताजी ने बतलाया है कि उपयोग के भेद-प्रभेद तो समझो, लेकिन समझने पर स्वयं की आत्मा को पहिचानो यह निर्देश कितना महत्त्वपूर्ण है। माताजी ने पाठक को इशारा किया है कि भेद और प्रभेद का ज्ञान करके स्वयं की आत्मा को पहिचानना आवश्यक है। क्योंकि मोक्ष मार्ग में सबसे बड़ा For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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