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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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प्रथम समापन पद्य में ग्रन्थ के पूर्ण होने की सूचना दी गई है। उसके अनुसार यह नियमसार-पद्यानुवाद वीर निर्वाण संवत् २५०४ की ज्येष्ठ सुदी श्रुतपंचमी को पूरा हुआ है।
निष्कर्षतः नियमसार कुन्दकुन्द की ऐसी महत्त्वपूर्ण रचना है, जिसमें अनेक विषयों को नये रूप में प्रस्तुत किया गया है और अनेक विषयों की नवीन परिभाषाएँ तथा व्याख्यायें दी गयी हैं। नियमसार अध्यात्म प्रधान कृति होने पर भी इसमें सरल एवं स्वाभाविक शैली का प्रयोग हुआ है, जिससे उसकी गूढ़ता भी स्पष्ट एवं सहज बन गयी है।
नियमसार की भाषा प्राकृत है। प्राकृत भाषा तत्कालीन व्यवहार का माध्यम होने के बावजूद भी कालक्षेप के कारण उसे सामान्य जनों को समझने में आज कठिनाई होती है। आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने इसका हिन्दी भाषामय पद्यानुवाद-भावानुवाद करके तत्त्व जिज्ञासुओं एवं साधकों को सरलता प्रदान की है।
माताजी शतायु हों तथा अपने साहित्य सृजन एवं अन्य प्रवृत्तियों के द्वारा जनकल्याणोपयोगी कार्य करती रहें, ऐसी मंगलकामना है। इति शुभम् ।
"आराधना"
समीक्षक- डॉ. जयकुमार जैन, एस०डी० कालेज, मुजफ्फरनगर
जैनधर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है। इसमें जो कुछ प्रवृत्तिपरक दृष्टिगोचर होता है, वह भी निवृत्ति का ही सहायक है। अशुभ से सप्रयास निवृत्ति तथा शनैः शनैः शुभ से भी स्वतः निवृत्ति ही जैन धर्म का लक्ष्य है। यतः पूर्ण निवृत्ति या मुक्ति परमसुखस्वरूप है, अतः जैनधर्म प्राणीमात्र को मुक्ति प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ को हितकारी मानता है। सामर्थ्य के आधार पर जैनधर्म मुनिधर्म और श्रावक धर्म के रूप में विभक्त है।
पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा विरचित 'आराधना' शास्त्र में ४४४ श्लोकों में मुनिधर्म का सरल एवं प्रसादगुण समन्वित शैली में वर्णन किया गया है। सम्यक् चारित्र के निरन्तर विकास के लिए पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत मूलाचार, भगवती आराधना, अनगारधर्मामृत, आचारसार एवं रत्नकरण्डश्रावकाचार आदि ग्रन्थों में जो विषय वर्णित है, उसका सार ग्रहण कर पूज्य माताजी ने उसे एकत्र सुबोध रीति में प्रस्तुत करके आज के तिलतण्डुललवणचिन्तावितान में व्यस्त मानव का परम उपकार किया है। इसमें धर्म के सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्षों का ऐसा मनोरम एवं सरल वर्णन है कि जिज्ञासा के साथ ही व्यक्ति की इसमें स्वतः प्रवृत्ति होने लगती है। पूज्य माताजी द्वारा विरचित 'आराधना' एक शास्त्र है। किसी
कार्य में प्रवृत्ति और किसी कार्य से निवृत्ति रूप शासन करने से 'आराधना' में 'शासनात् शास्त्रम्' निरुक्ति तथा आत्मा आदि सूक्ष्म एवं इन्द्रियातीत तत्त्वों के कथन से 'शंसनात् शास्त्रम्' निरुक्ति समीचीन एवं सर्वथा सुसङ्गत है।
इस ग्रन्थ या शास्त्र के प्रारम्भ में “सिद्धार्थं सिद्ध सम्बन्धं श्रोतुं श्रोता प्रवर्तते। शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः सम्बन्धः सप्रयोजनः" नियम के अनुसार अनुबन्धचतुष्टय का उल्लेख किया गया है। अनुबंधचतुष्टय के अन्तर्गत विषय सम्बन्ध, प्रयोजन और अधिकारी का उल्लेख होना चाहिए। 'आराधना' के द्वितीय श्लोक में इसका उल्लेख है
'रत्नत्रयं तदाराध्यं भव्यस्त्वाराधकः सुधी।
आराधना भ्यूपायः स्यात् स्वर्गमोक्षौ च तत्फलम्॥ प्रस्तुत शास्त्र 'आराधना' का विषय नाम से ही ज्ञातव्य है। आराधना का विवेचन इसका विषय है। विषय और शास्त्र में वाच्यवाचकभावसम्बन्ध तथा विषय और अधिकारी में आराध्याराधक भाव सम्बन्ध है। बुद्धिमान् भव्य आराधक इस शास्त्र का अधिकारी है और स्वर्ग एवं मुक्ति की प्राप्ति इसका प्रयोजन है। ___ 'आराधना' पद आ उपसर्गपूर्वक राथ् धातु से ल्युट् प्रत्यय करने पर निष्पन्न हुआ है। इसका शाब्दिक अर्थ पूजा, उपासना या अर्चना है। निश्चय की अपेक्षा आराधना एक ही है, क्योंकि निश्चय नय अभेद रूप होता है। किन्तु व्यवहार की अपेक्षा से आराधना के चार भेद हैं-दर्शन, ज्ञान, चारित्र
और तप । प्रकृत 'आराधना' शास्त्र में दर्शन आराधना के प्रसङ्ग में सम्यग्दर्शन के निःशङ्कित आदि आठ अङ्ग एवं पच्चीस मलदोषों (आठ दोष + आठ मद + छः अनायतन + तीन मूढ़ता) का वर्णन करने के बाद फल के रूप में सिद्धगति की प्राप्ति का वर्णन किया गया है। ज्ञान आराधना में अष्टविध सम्यग्ज्ञान की आराधना तथा ज्ञान की सिद्धि के लिए ज्ञातव्य चार अनुयोगों का वर्णन है। यहाँ मुमुक्षुओं को यह ध्यातव्य है कि यद्यपि सिद्धान्त ग्रन्थों का
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