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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ "प्रतिक्रमण" कहलाता है। इस पुस्तक में सर्वप्रथम पू. आर्यिका श्री ने मंगलाचरण में सिद्धों को, अर्हन्तों को नमस्कार कर सामायिक की सिद्धि के लिए सरस्वती माता को हृदय में विराजमान किया है "सिद्धान्तत्वार्हतचापि सम्मति हृदि धारये श्रुतदेवी मुनीन्द्र सामायिकस्य सिद्धये ॥१॥ सामायिक कब और कैसे करें? इसी का नाम सामायिक है। "सत्त्वेषु नहीं है प्रत्युत् त्रिकाल सामायिक के समय ही तीन बार देव वंदना का विधान है। प्रमाण देखिए आचारसार ग्रंथ में सामायिक आवश्यक का वर्णन करते हुए सिद्धांत चक्रवर्ती श्री वीरनन्दि आचार्यदेव तीर्थ क्षेत्र या जिनमंदिर में जाकर विधिवत् यशुद्धि और चैत्य-पंचगुरुभक्ति करने का आदेश दे रहे हैं। यथा उदाहरण के लिए एक श्लोक है - इस विषय पर पूज्य माताजी ने लिखा है साधुओं की सामायिक और देववंदना एक है। विधिवत् देववंदना करना मैत्री" आदि पाठ पढ़कर जाप्य आदि करके सामायिक करना और देवदर्शन के समय देववंदना क्रिया करना, ऐसा "समोपेतचित गः स तत्परिणताहयः प्रकृतोऽत्रायमन्यासु क्रियास्वेवं निरूपयेत् ॥२२॥" आद्यवक्तव्य में पूज्य आर्यिका श्री ने लिखा है देवपूजां बिना सर्वा दूरा सामायिकी क्रिया ॥” (भावसंग्रह) देवपूजा के बिना श्रावकों की सामायिक क्रिया दूर ही है और भी अनेक ग्रंथों के आधार से स्पष्ट है कि सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्तिपूर्वक विधिवत् अभिषेक पूजा करना ही श्रावकों की सामायिक है। इसी विधि को पू. माताजी ने इस सामायिक पुस्तक के अंत में पृष्ठ ९४, ९५, ९६ पर दिया है और कहा है कि श्रावकों को प्रातःकाल में तो देवपूजापूर्वक सामायिक करना चाहिए और मध्याह्न और सायंकाल में इस पुस्तक के पृ. १४ पर देववंदना (सामायिक) करना चाहिए। इसमें मंदिर में जाकर सामायिक करने में पहले दृष्टाष्टक स्तोत्र पढ़ें। पृ. ५ पर देखिए "दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि भव्यात्मनां विभवसंभवभूरिहेतु। दुग्धाब्धिफेनधवलोज्ज्वलकूटकोटि-नद्धध्वजप्रकरराजिविराजमानम् ॥१ ॥ पुनः ईर्वापथ शुद्धि पृ. ७ पर जो कि आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित है, पढ़ें "निःसगोहं जिनानां सदनमनुपमं त्रिः परीत्येत्य भक्त्या । स्थित्वा गत्वा निषद्योच्चरणपरिणतोऽन्तः शनैर्हस्तयुग्मम् " [४३३ Jain Educationa International श्रावकों की सरलता के लिए पू. माताजी ने इसका बहुत ही सरल और स्पष्ट अक्षरों में हिन्दी पद्यानुवाद कर महान् उपकार किया है। इसका नमूना देखिए “आज पवित्र हुआ तनु मेरा नेत्र युगल भी विमल हुए। धर्मतीर्थ में मैं स्नान किया, जिनवर ! तव दर्श किए ॥६॥ इसको पढ़कर विधिवत् सामायिक करना चाहिए। दो प्रतिमा वाले श्रावकों को २ बार और तीन प्रतिमा से ग्यारह प्रतिमा वालों को और मुनि आर्यिका को तीन बार सामायिक करने का ग्रंथों में विधान है। सामायिक विधि में पू. माताजी ने आचार्यग्रंथों के अनुसार किस मुख खड़े होकर या बैठकर सामायिक शुरू करे? कब कायोत्सर्ग करें? कम आवर्त दें? कितनी बार पंचांग नमस्कार करें? कब कौन से आसन से बैठकर सामायिक करें? कौन-सी भक्ति में किस मुद्रा से पढ़ें। आदि प्रयोगात्मक रूप से लिखा है। सामायिक विधि में जो चैत्यभक्ति है, वह श्री गौतमस्वामीजी द्वारा रचित है। सौधर्म इन्द्र की प्रेरणा से ये भगवान महावीर के समवसरण में पहुँच दिगम्बर दीक्षा धारणकर भगवान के प्रथम गणधर हुए भगवान की दिव्यध्वनि खिरी, जिसे सुनकर इन्होंने ग्यारह अंग चौदह पूर्वो की रचना की। "हरिणीछंद" में "चैत्यभक्ति" का एक श्लोक जयति भगवान् भोजप्रचारविजेभिता, चमरमुकुटादोद्गीर्णप्रभापरिचुम्बितौ । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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