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वीर. ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
कलुषहृदया मानोद्धान्ताः परस्परवैरिणो।
विगतकलुषाः पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसु ॥१॥ अपने मौलिक भावों को पद्य में लिखना तो सरल है, लेकिन श्री गौतम स्वामीजी जैसे महान् गणधरों द्वारा रचित पंक्तियों को काव्य में ज्यों का त्यों रखना एक दुरूह और अतिसाहस का कार्य कर दिखाना है। “गागर में सागर" भरने की कहावत को चरितार्थ करते हुए पूज्य माताजी ने "चौबोल छंद" में चैत्यभक्ति का बहुत सुंदर वर्णन किया है और इसमें "संस्कृत पंक्ति" का एक अर्थ झलक रहा है
"जय हे भगवन्! चरण कमल तव, कनक कमल पर करें विहार।
इन्द्रमुकुट की कांति प्रभा से, चुंबित शोभे अति सुखकार ॥ जातविरोधी कलुषमना, क्रुध मान सहित जन्तु गण भी।
ऐसे तव पद का आश्रय ले, प्रेम भाव को धरें सभी ॥१॥ श्रावकों को बिना परिश्रम के ही इसका अर्थ समझ में आ जाता है। अर्थ-हे भगवन! आप जयशील होवें। आपके चरण कमल स्वर्ण कमलों पर विहार करते हैं। इन्द्र आपको मुकुट झुकाकर नमस्कार करते हैं। पशुगण भी जाति वैर को छोड़कर आपके चरणों का आश्रय लेकर प्रेमभाव को धारण करते हैं।
इसी प्रकार से ३५ श्लोकों में निबद्ध "चैत्यभक्ति" का सरल पद्यानुवाद कर पू. माताजी ने महान् उपकार किया है।
सामायिक पाठ में चैत्यभक्ति के पश्चात् "पंचगुरुभक्ति" पढ़ते हैं। "पंचगुरुभक्ति" प्राकृत में आचार्य श्री कुंदकुंददेव द्वारा रचित है। जिसे पढ़कर शायद ही कोई उसका अर्थ समझ सके। लेकिन पू. माताजी ने उसका भी पद्यानुवाद कर अर्थ स्पष्ट कर दिया है, जैसे
मणुयणाइंदसुरधरियछत्तत्तया पंचकल्लाणसोक्खावली पत्तया ।
दसणं णाण झाणं अणंतं बलं, ते जिणा दिंतु अम्हं वरं मंगलं ॥१॥ हिन्दी पद्यानुवाद
सुरपति नरपति नागइन्द्र मिल, तीन छत्र धारें प्रभु पर । पंचमहाकल्याणक सुख के, स्वामी मंगल मय जिनवर ॥ अनन्त दर्शन ज्ञान वीर्य सुख, चार चतुष्टय के धारी।
ऐसे श्री अहंत परमगुरु, हमें सदा मंगलकारी ॥१॥ चैत्यभक्ति और पंचगुरु भक्ति पढ़ने के पश्चात् अंत में समाधिभक्ति पढ़ते हैं। आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित "समाधिभक्ति" है। यह सभी क्रियाओं के अंत में की जाती है। समाधि भक्ति का एक श्लोक देखिए
तव पादौ मम हृदये, मम हृदयं तव पदद्वये लीनं ।
तिष्ठतु जिनेन्द्र! तावद्यावनिर्वाणसम्प्राप्तिः ॥२॥ हिन्दी पद्यानुवाद
तव चरणांबुज मुझ मन में, मुझ मन तव लीन चरण युग में।
तावत् रहे जिनेश्वर यावत्. मोक्ष प्राप्ति नहिं हो जग में ॥२॥ इस प्रकार देव वंदना (सामायिक) में ईर्यापथ शुद्धि, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और समाधि भक्ति पढ़ने के पश्चात् जितनी देर चाहे, उतनी देर पिंडस्थ, पदस्थ रूपस्थ या रूपातीत ध्यान करें अथवा जाप्य करें।
पृ. ४० पर पू. माताजी ने लिखा है कि सामायिक के पश्चात् गुर्वावली पढ़ें। क्योंकि जिस गुरु परम्परा में हमने शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की है, उन्हें हम नमस्कार करें। यदि गुरु प्रत्यक्ष में विराजमान हो तो समीप जाकर गुरु वंदना करें, अन्यथा परोक्ष में ही लघु तीन भक्तियां पढ़कर विधिवत् गुरुवंदना करें।
पृ. ४१-४२ पर गुरुवंदना कब और कैसे करें? विधिपूर्वक लिखी है। पृ० ४३ से पृ० ४८ तक प्रायोगात्मक रूप से गुरूवंदना (आचार्यक्दना) लिखी है। जिसे करके हम समुचित रूप से अपने पापों का क्षालन कर सकते हैं। इन लघु भक्तियों का भी नीचे हिन्दी पद्यानुवाद कर पृ. माताजी ने गुरुवंदना भी सरल भाषा में प्रस्तुत की है।
जैसा कि पू. माताजी को प्रारंभ से ही सभी व्यावहारिक क्रियाओं में शास्त्रीय विधि प्रिय और मान्य रही है उसी में एक विधि और विशेष है
पृ. ४८ पर-चतुर्दशी के दिन सामायिक विधि-इसमें पू. माताजी ने बताया है कि प्रत्येक चतुर्दशी के दिन श्रावकों को तीनों समय मामायिक में श्रुतभक्ति का भी पाठ करना चाहिए।
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