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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४३५ पृ.६३ पर-श्रावक प्रतिक्रमण कौन-कौन करें और कब करें? इसका पूर्णरूप से दिग्दर्शन कराया गया है। श्रावक प्रतिक्रमण पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक तीनों ही प्रकार के श्रावक करें। पृ. ५४ से पृ. ९३ तक "श्रावक प्रतिक्रमण"-मूल श्री गौतम स्वामी द्वारा प्रतिपादित और उसके सामने पृ. पर चौबोल छंद, शंभुछंद आदि में पूज्य माताजी द्वारा हिन्दी पद्यानुवाद दिया गया है। इसका भी एक नमूना देखिए "खम्मामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे। मेत्ती मे सव्वभूदेसु वेर मज्झं ण केणवि ॥३॥ हिन्दी पद्यानुवादसभी जीव पर क्षमा करूँ मैं, सब मुझ पर भी क्षमा करो। सभी प्राणियों से मैत्री हो, बैर किसी से कभी न हो ॥३॥ अभी तक यह प्रतिक्रमण केवल मूल में ही था, लेकिन कतिपय व्रतिकों के आग्रह पर पू. माताजी ने इसका हिन्दी पद्यानुवाद कर दिया है। जिसे पढ़कर श्रावक उसके अर्थ को समझकर अपने दोषों का अधिक क्षालन कर लेते हैं। इसमें ग्यारह प्रतिमाओं तक के व्रतों में लगने वाले क्षमायाचना की गई है। इसमें बताया गया है कि जो श्रावक जितनी प्रतिमा का धारी है, वहीं तक के दण्डकों को पढ़ें। जैसे सप्तम प्रतिमाधारी श्रावक सात दंडकों तक पढ़ें और ग्यारह प्रतिमाधारी क्षुल्लक एवं क्षुल्लिका पूरे दंडक पढ़ें। उदाहरण के लिए जैसे तीसरी प्रतिमा वाले को प्रथम दो दंडक पढ़कर फिर पृ. ७६ पर लिखे तीसरे दंडक को पढ़ना चाहिए पडिक्कमामि भंते! सामाइयपडिमाए मणदुप्पणिधाणेण वा वायदुप्पणि-वा कायदुप्पणिधाणेण वा अणादरेण वा सदि अणुवट्ठवणेण वा जो मए देवसियो अइचारो मणसा वचिया काएण कदो वा कारिदो वा कीरंतो वा समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ॥३॥ इसका हिन्दी पद्यानुवाद देखिए हे भगवन! प्रतिक्रमण करता तीजी सामायिक प्रतिमा में। मन दुष्परिणति वच दुष्परिणति तनुदुष्परिणति के करने में । याकिया अनादर विस्मृति करके पढ़ा पाठ सामायिक में। दिन संबंधी अतिचार किये जो मन वच काया से मैंने ॥ करवाया या अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो ॥३॥ इसे पढ़ने से तीसरी प्रतिमा के धारी श्रावक के जो दोष लगते हैं, वे दूर हो जाते हैं। ११ प्रतिमाओं के दण्डक पढ़ने के पश्चात् मुनिव्रत धारण करने की भावना भाई गई है। पृ. ८० पर इच्छामि भंते! इमं णिग्गथं पावयणं अनुत्तरं केवलियं....। हे भगवन्! इच्छा करता हूँ, ऐसे निर्ग्रन्थरूप की ही। जिन आगम कथित अनुत्तर यह केवलि संबंधी पूर्ण यही ॥ रत्नत्रमय नैकायिक सम-एकत्वरूप सामायिक है। संशुद्ध शल्ययुतजन का शल्यविघातक और सिद्धिपथ है ॥१॥ पुनः वीरभक्तिः (पृ. ८४), चतुर्विंशतितीर्थकर भक्तिः (पृ.८८) पर पढ़कर समाधिभक्तिः (पृ. ९२) पर पढ़ी जाती है। इस पुस्तक के अंत में पृ. ९४ से ९५ तक श्रावकों की "पूजामुखविधि" और "पूजा अन्त्य विधि" का शास्त्रोक्त वर्णन किया है। जो व्रती या अव्रती श्रावक इस विधि को कर पूजा करते हैं, उनकी प्रातःकालीन सामायिक विधि पूरी हो जाती है। ऐसा श्री पूज्यपाद आदि आचार्यों का उपदेश है। विधि तो सभी लोग कुछ न कुछ करते हैं लेकिन पू. माताजी का कहना है कि शास्त्रोक्त विधि करने से उससे प्राप्त पुण्य में महान् अंतर पड़ जाता है। इस पूजामुख और पूजाअन्त्य विधि में भी माताजी ने “वसंततिलका" आदि छंद में अनुवाद कर सरल भाषा में कर दिया है। जैसेसंसार के भ्रमण से अति दूर है जो। ऐसे जिनेंद्र पद में नित ही नमूं मैं॥ सम्पूर्ण सिद्धगण को सब साधुओं को। व, सदा सकल कर्म विनाश हेतु ॥१॥ इस प्रकार से पू. माताजी ने सभी बालक, युवा, वृद्ध, विद्वान्, व्रती अव्रती श्रावकों के लिए उपयोगी पुस्तकें लिखकर संस्कृत, प्राकृत भाषा का हिन्दी में पद्यानुवाद कर सभी को सरलता से समझ लेने का भी एक कीर्तिमान स्थापित किया है। पूज्य माताजी अपनी सतत चल रही लेखनी से अपनी अमृतमयी वाणी से अनेकों जीवों का कल्याण करती हुई मोक्षमार्ग में अग्रसर है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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