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________________ १३०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला मात्र तीन दिवसीय अपने प्रवास की कुछ पावन स्मृतियाँ आज भी मेरे हृदय पटल पर अंकित हैं। आज की प्रख्यात साधिका पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी उन्हीं लाला छोटेलालजी की गृहस्थ अवस्था में सुपुत्री थीं। मुझे यह भी स्मरण है कि इनका नाम मैना देवी था और इस महामना सरस्वतीमूर्ति के प्रारंभिक वैराग्य और ज्ञान की चर्चाएं भी वहाँ घर-घर में सुनी जाती थीं। उन दिनों की कु० मैना एक महान् इतिहास साध्वी के रूप में समाज में आयेगी इसका तो शायद ग्रामवासी अनुमान भी नहीं लगा सके होंगे, जिन्होंने कुछ दिनों बाद ही निज-पर के कल्याणार्थ महाव्रतों का पालन किया एवं जिनके चरण चिह्नों के साथ ज्ञान का आलोक जन-जन में प्रकाशित हुआ। ऐसी ज्ञानमती माताजी ने गृहस्थ के उस वातावरण से विरक्त होकर संयम और साधना के पथ को अंगीकार किया। आज सम्पूर्ण समाज इस ज्ञान की ज्योति से गौरवान्वित है। मैं ऐसी त्यागमूर्ति माँ के चरणों में प्रणाम करता हूँ। कर्मठता की साक्षात् मूर्ति : पूज्या माताजी - वैद्य शान्ति प्रसाद जैन राजवैद्य शीतल प्रसाद एण्ड संस, दिल्ली मैं १९७२ में श्रद्धेय माताजी के सम्पर्क में आया। जैन साधु-साध्वियों के प्रति प्रारम्भ से ही मेरी आस्था रही है; अतः माताजी के प्रति मेरी श्रद्धा स्वत: समुद्भूत हुई और उनके सम्मुख श्रद्धावनत होकर उनके श्रीचरणों में मैंने अपने श्रद्धा सुमन सहर्ष भाव से अर्पित किये। इसे मैं अपने पूर्व जन्मोपार्जित कर्मों के शुभ संस्कारों का फल मानता हूँ कि उनके सम्पर्क में आने के पश्चात् शनैः शनैः उनके प्रति मेरी आस्था और श्रद्धा न केवल बढ़ती गई, अपितु दृढ़ हो गई। इसका एक परिणाम यह हुआ कि प्रारम्भ में उनसे वार्तालाप करने में मेरे अन्दर एक तरह की जो झिझक और हिचक थी वह दूर हो गई और मैं निःसंकोच होकर अपने अन्तः की जिज्ञासा उनके सम्मुख प्रकट कर देता था, जिसका समाधान मुझे मिल जाना था। आगे चलकर मैंने यह अनुभव किया कि पूज्य माताजी के अन्तःकरण में समाज को धार्मिक दृष्टि से शिक्षित करने की उत्कट भावना विद्यमान् है और इसे वे मूर्त रूप देना चाहती हैं। इस सम्बन्ध में जब मेरी उनसे चर्चा हुई और उन्होंने अपनी इच्छा मेरे सम्मुख प्रकट की तो उनकी भावना का सम्मान करते हुए मैंने उनकी योजनानुसार शिक्षण शिविरों का आयोजन करने में अपना यथाशक्ति सहयोग दिया, जिससे अनेक धर्मप्रेमी बन्धुओं ने लाभ उठाया। इन शिविरों के माध्यम से न केवल धर्म सम्बन्धी मूल बातें लोगों को बताई गईं, अपितु तात्त्विक चर्चा के द्वारा विद्वानों में विचार मंथन भी हुआ, जिसके अमृत कणों से समाज भी लाभान्वित हुआ। माताजी के मस्तिष्क में जम्बूद्वीप की रचना की कल्पना काफी समय से बैठी हुई थी। पहाड़ी धीरज में १९७३ में उनके चातुर्मास के समय जब पुनः मैं उनके सम्पर्क में आया और समाज के चार प्रमुख व्यक्ति चुनकर जम्बूद्वीप की रचना का दायित्व उन्हें सौंपा गया तब यह कल्पना भी नहीं की गई थी कि हस्तिनापुर की सुरम्य अटवी में जम्बूद्वीप की इतनी बड़ी व विस्तृत भव्य रचना साकार हो उठेगी। यह मेरा सौभाग्य है कि इस कार्य के कार्यान्वयन के लिए वे मुझसे बराबर मंत्रणा करती रहती थीं और मुझसे जिस प्रकार का भी शारीरिक, बौद्धिक या आर्थिक सहयोग बन पड़ता था मैं बराबर देने का प्रयत्न करता था। आज जम्बूद्वीप की रचना का जो साकार रूप हमारे सम्मुख विद्यमान् है वह पूज्य माताजी की प्रेरणा और कर्मठता का ही परिणाम है। उन्होंने जम्बूद्वीप के माध्यम से समाज को धार्मिक विरासत के रूप में ऐसी देन दी है जिसके द्वारा चिरकाल तक समाज को धार्मिक स्फुरण एवं प्रेरणा प्राप्त होती रहेगी। असम्भव प्रतीत होने वाले पूज्य माताजी के इस कार्य से समाज का बहुत बड़ा उपकार हुआ है। मैं अपने आप को धन्य भाग्य मानता हूँ कि मुझ जैसे अकिंचन को माताजी ने किसी लायक समझा तथा समाज और धर्म की सेवा करने का कुछ अवसर दिया। पूज्य माताजी के श्री चरणों में कोटिशः नमन करता हुआ श्रद्धा एवं भक्तिभावपूर्वक अपनी विनयांजलि अर्पित करता हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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