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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१३१ संत शिरोमणि नारी रत्न - मोतीचंद कासलीवाल जौहरी, दरीबा कला, दिल्ली जिस प्रकार प्रत्येक पर्वत पर मणि नहीं होती, प्रत्येक हाथी के मुक्ता नहीं होता, प्रत्येक वन में चन्दन नहीं होता। उसी प्रकार जगत् का कल्याण करने वाले साधु सर्वत्र नहीं होते। उपर्युक्त कहावत परम पूज्या गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के बारे में खरी उतरती है। वे महिलाओं में सर्वोत्कृष्ट, महाव्रत आर्यिका के पद पर विभूषित हैं। आर्यिकाओं में भी श्रेष्ठ गणिनी के पद पर आरूढ़ हैं। वे यथा नाम तथा गुण वाली हैं। पूज्या माताजी ने श्री दिगम्बर धर्म, समाज तथा देश के लिए जो सर्वान्मुखी अभूतपूर्व कार्य किये हैं उनके लिये समाज उनका चिर ऋणी रहेगा। वे स्वयं तो मोक्षमार्ग में चल रही हैं, साथ ही उन्होंने अनेकानेक भव्य प्राणियों, न केवल महिलाओं, अपितु अनेक पुरुषों को भी मोक्ष मार्ग में लगाया है तथा अपने से श्रेष्ठ मुनि पद पर पहुँचाया है। जम्बूद्वीप की पावन रचना दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, आचार्य वीरसागर विद्यापीठ, कमल मंदिर, वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला, १५० से अधिक ग्रंभों का लेखन, सम्यग्ज्ञान हिन्दी मासिक, इन्द्रध्वज विधान आदिक विधानों की रचना इनका जीवंत उदाहरण है। मैं उनको लगभग १५ वर्षों से जानता हूँ व उनके प्रति अगाध श्रद्धा एवं भक्ति रखता हूँ। उनके अभिवंदन ग्रंथ प्रकाशन के अवसर पर मेरी विनयांजलि सादर समर्पित है। मेरी यह भावना है कि वे समाज को सदा अपनी दिशा प्रदान कर इसे पुष्पित व पल्लवित करती रहें व शीघ्र मोक्ष सुख को प्राप्त करें। श्रद्धा सुमन -सरदार चन्दुलाल शहा बम्बई विशेष कार्यकारी मजिस्ट्रेट परमपूज्य श्री ज्ञानमती माताजी सरल-शांत-सौम्यता की प्रतिमूर्ति हैं। निस्पृहता आपके जीवन का अभिन्न अंग है। आपके वचनों में आकर्षण शक्ति के साथ-साथ माधुर्य एवं स्पष्टवादिता है। आप अन्दर और बाहर दोनों ही ओर से एक समान अवस्था के हैं। आपके जीवन की ऋजुता अन्तरंगस्थ आर्जव धर्म को प्रकट करती है। बाह्याभ्यंतर परिग्रह से आप सर्वथा दूर हैं। भगवान् महावीर के पच्चीस सौवें निर्वाण महोत्सव के समय सन् १९७४ में आपकी प्रेरणा से दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान ने हस्तिनापुर तीर्थस्थल पर जम्बूद्वीप रचना निर्माण हेतु एक भूमि खरीदी। जहाँ सन् १९७५ से जम्बूद्वीप का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ। उस समय मैंने आपको अत्यन्त समीप से देखा है। आप अकम्प अभिनंदनीय आर्यिका हैं, आपने कभी किसी प्रकार ख्याति-पूजा लाभ के प्रलोभन में आकर धर्म सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया। आगम कथित सभी गुण आप में विद्यमान हैं। अपरिस्रावी गुण तो स्वयं आपकी गम्भीर जीवनचर्या प्रकट करता है। आप रत्नत्रय से परिशुद्ध हैं तथा भव्य जीवों को भवाब्धि से तारने वाली परम माता हैं। क्षत्रचूड़ामणिकार की निम्न उक्ति आपमें पूर्णतया परिलक्षित है "गर्भाधान क्रिया मात्र न्यूनौ हि पितरौ गुरुः" बिना गर्भाधान क्रिया के आप भव्य जगत् की सच्ची माता हैं और शिष्यवर्ग का पालन-पोषण करने वाली सच्ची गुरूमाता हैं। आज हम आप जैसे गणिनी आर्यिकारत्न को पाकर अपने जीवन को कृतार्थ मानते हैं और यही भावना करते हैं कि आप चिरकाल तक पृथ्वी तल पर रहकर हमें अनुगृहीत करें और अपने साथ ही हमें भी संसार समुद्र से पार करा दें। इन्हीं शब्दों में मैं पू० ज्ञानमती माताजी को विनयांजलि समर्पित करते हुए मन-वचन-काय की शुद्धतापूर्वक त्रिकाल शत-सहस्त्र नमन करता हूँ। विनयांजलि - ताराचंद एम०शाह०, बॉम्बे आज के इस वर्तमान युग में चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ शांतिसागरजी महाराज ने सारे भारत में विहार किया। जैन धर्म की महत्ता, साधु संस्था की महत्ता से केवल जैन समाज ही नहीं, बल्कि पूरे भारतवासियों को धर्म के उत्कृष्ट मार्ग पर सन्मार्ग पर चलते रहने का महान् आदर्श कायम किया। आचार्य श्री के प्रथम शिष्य आचार्य श्री १०८ वीरसागरजी महाराज की शिष्या आर्यिका पू० ज्ञानमती माताजी हैं। ल कलश के बाद जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर जैन धर्म की प्रभावना वृद्धिंगत करने का महान् कार्य-जैन समाज में धर्मप्रचार-प्रसार का महान् कार्य ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से हुआ। यह इतिहास भविष्य में भी प्रभावशाली बना रहेगा, यह महान् प्रशंसनीय कार्य-जैन समाज के लिये गौरव की बात है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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