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________________ ४८२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला मेरी स्मृतियाँ समीक्षक-डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल સ્કૃતિમાં शताब्दी की रोचक जीवन गाथा जीवन के खट्टे, मीठे एवं कडुए संस्मरण लिखना आसान कार्य नहीं है। यद्यपि यह सही है कि मानव जितना अपने बारे में जानता है, अपनी अच्छाइयों एवं बुराइयों को पहिचानता है उतना अच्छा अन्य कोई नहीं जानता, लेकिन व्यक्ति अपने बारे में बताना कहाँ चाहता है। वह तो अपनी कमजोरियों को छिपाना चाहता है और । मेरी अवगुणों पर पर्दा डालना चाहता है। इसलिए विरले व्यक्ति ही आत्म चरित्र लिख पाते हैं। इसके अतिरिक्त अधिकांश व्यक्तियों के जीवन में उपलब्धियों की संख्या ही नगण्य रहती है। पढ़ना-लिखना, खाना-कमाना जीवन की उपलब्धियों में कहाँ आ पाता है? आत्म कथा लिखने के लिए विलक्षण स्मरण शक्ति, लेखन शक्ति, दैनिक डायरी लिख पाने की क्षमता, आदर्श जीवन सभी की आवश्यकता होती है। जिसके जीवन में उतार-चढ़ाव नहीं आये हों, विपत्तियों का सामना नहीं किया हो, विलक्षण एवं अभूतपूर्व कार्य का सम्पादन नहीं किया हो, वह व्यक्ति भी अपनी आत्म शिळीमका सानाति कथा में क्या लिख सकता है, इसलिए अधिकांश व्यक्ति तो जीवन गाथा लिखने का विचार ही नहीं कर पाते। __ जैनाचार्यों एवं विद्वानों द्वारा अपनी कृतियों के अन्त में अपना एवं तत्कालीन शासन, समाज नगर आदि का परिचय देने की परम्परा रही है, लेकिन उसे हम आत्मचरित की संज्ञा न देकर उसका एक अंश कह सकते है। आचार्य समन्तभद्र ने “वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितं" जैसे पद्य में अपनी विद्वत्ता, शास्त्रार्थ कुशलता एवं निर्भीकता का जो परिचय दिया है वह भी उनके आत्मचरित का अंश मात्र ही है। १५वीं शताब्दी के पश्चात् अपभ्रंश, संस्कृत एवं हिन्दी के कितने ही जैन कवियों ने अपनी कृतियों के अन्त में लम्बी-लम्बी प्रशस्तियां लिखना प्रारंभ कर दिया था। इन प्रशस्तियों से कवि के जीवन, माता-पिता, लेखन, ग्राम, नगर, शासक, व्यापार आदि के सम्बन्ध में अच्छी जानकारी मिल जाती है, जो एक लघु परिचय के समान है, लेकिन ऐसी प्रशस्तियों में कवि के कडुवे-मीठे संस्मरण नहीं होते इसलिए ये प्रशस्तियाँ परिचयात्मक होते हुए भी आत्मचरित की श्रेणी में भी नहीं आ सकतीं। भट्टारक युग में इस प्रकार की प्रशस्तियाँ लिखने की अच्छी परम्परा रही। भट्टारकों ने अपने ग्रन्थों के अंत में पूर्व भट्टारकों सहित अपना परिचय लिखने की परम्परा को विकसित किया। जिसका अनुसरण कर उनके पीछे होने वाले कवियों ने जैसे महाकवि दौलतराम कासलीवाल, पं. जयचंद छाबड़ा, पं. सदासुख कासलीवाल, पं. बख्ताराम साह आदि हिन्दी विद्वानों ने अपनी कृतियों में विस्तृत प्रशस्तियाँ लिखीं, लेकिन कविगण अपने सामान्य परिचय के अतिरिक्त वास्तविक परिचय नहीं दे सके, जयपुर के किसी विद्वान् द्वारा महापंडित टोडरमल झा जैसे विद्वान् का जन्मस्थान जानने एवं मृत्युतिथि का नहीं लिख पाना तत्कालीन शासन का भय एवं आक्रोश प्रकट करता है। अपभ्रंश के महाकवि रइधू ने भी अपने ग्रंथों में विस्तृत प्रशस्तियाँ लिखी हैं, लेकिन वे भी आत्मचरित की श्रेणी में नहीं आतीं। आत्मचरित की दृष्टि से महाकवि बनारसीदास का “अर्द्ध कथानक" एक निराला एवं शुद्ध आत्मचरित है। उसमें न किसी की प्रशंसा है और न किसी की निन्दा, किन्तु वह एक कवि एवं असफल व्यापारी की आत्मकथा है, जिसमें जो जैसा है उसे वैसा ही चित्रण किया गया है। हिन्दी जगत् में बनारसीदास का यह आत्मचरित हिन्दी का सर्वोत्तम आत्मचरित माना जाता है। बनारसीदास के पश्चात् भट्टारक क्षेमकीर्ति का एक और आत्मचरित मेरे देखने में आया है। यद्यपि उसमें अर्द्ध कथानक जैसा स्तर तो नहीं आ पाया है, लेकिन भट्टारक क्षेमकीर्ति का ६० वर्ष का (संवत् १६९७ से १७५७) पूरा जीवन वृत्त लिखा हुआ है। क्षेमकीर्ति का जन्म, शिक्षा, साधु जीवन, विहार एवं कृतित्व का एक-एक वर्ष के आधार पर परिचय दिया हुआ है। यह कृति हिन्दी गद्य में है, जिस पर गुजराती का पूर्ण प्रभाव है। इस प्रकार संपूर्ण जीवन और वह भी विस्तृत विवरण के साथ लिखा हुआ आत्मचरित प्रथम बार देखने में.ना है। यह आत्मचरित अभी तक अप्रकाशित है। इसकी एक पाण्डुलिपि उदयपुर के संभवनाथ दि० जैन मंदिर में संगृहीत है। वर्तमान शताब्दी में कवीन्द्र रवीन्द्र, महात्मा गाँधी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद एवं पं. जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथायें अत्यधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं तथा देश में सभी वर्गों में समादृत हैं। वैसे इस युग में जीवन गाथायें एवं डायरी लिखने की रुचि जागृत हुई है जो अवश्य ही प्रशंसनीय है। जैन जगत् में स्व० गणेश प्रसादजी वर्णी की आत्मकथा को सबसे उत्तम स्थान दिया जा सकता है, जो "मेरी जीवन गाथा" के नाम से दो भागों में प्रकाशित हो चुकी है और समाज में पर्याप्त रुचि से पढ़ी जाती है। वर्णीजी ने अपने जीवन की घटनाओं को जिस प्रकार लिपिबद्ध किया है वह अत्यधिक प्रशंसनीय है। स्व. गणेशपसादजी वर्णी के पश्चात् आर्यिका गणिनी ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित “मेरी स्मृतियां' दूसरी जीवन गाथा है जो इस शताब्दी की बेजोड़ कृति है। माताजी ने इस जीवन गाथा में अपने ५६ वर्ष की जीवन कहानी इतनी अधिक सुगम शैली में लिखी है कि उसे पढ़ते ही जाइए कभी छोड़ने को मन नहीं चाहता। उपन्यास पद्धति में लिखी गयी "मेरी स्मृतियाँ' ने वर्तमान शताब्दी में निबद्ध आत्म कृतियों में अपना विशेष स्थान बना लिया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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