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________________ ६९२] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला माताजी (हंसकर) बात यह है कि उपर्युक्त दोनों रचनायें प्रसिद्धि में नहीं रहीं हैं। यही कारण है कि क्षु. मोतीसागर जी कई बार सभा में ऐसा बोल देते हैं। इसमें भी प्रमुख कारण यह है कि सन् १९५६ में खानिया चातुर्मास में मैंने ज्ञानार्णव ग्रंथ का स्वाध्याय करते समय बारह भावना के कुछ श्लोकों पर संस्कृत टीका बनाई थी। उन दिनों पं० खूबचंद जी शास्त्री वहीं आये हुये थे। मैंने उन्हें वह रचना दिखाई वे बहुत ही प्रसन्न हुये और मेरी कापी लेकर आचार्य श्री वीरसागर जी के पास पहुंच कर उन्हें वह रचना सुनाकर बहुत ही प्रशंसा करने लगे। मुझे भी साथ ले गये थे। आचार्यश्री ने देखा, किंचित् मुस्कराये" और बोले- आगम के अनुकूल ही लेखनी चलाना चाहिये। मेरे मस्तिष्क में यह पंक्ति घूमती रही। तभी मैंने मन में यह निर्णय किया कि मैं स्वयं चारों अनुयोगों के अनेक ग्रंथों का तलस्पर्शी अध्ययन कर लूंगी तभी कुछ लिखूगी... । यही कारण था कि मेरी लेखनी में सन् १९६५ तक का लंबा व्यवधान पड़ गया। हां, श्रवणबेलगोल से जबसे मैंने अपनी लेखनी चलाई है तबसे आज तक वह अविरल चलती आ रही है। डा. लालबहादुर शास्त्री- हमने सुना है कि आपने सभी ग्रंथों का अध्ययन स्वयं ही किया है। माताजी मैंने गोम्मटसार जीवकांड, कर्मकांड, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार आदि अनेक ग्रंथ स्वयं पढें हैं और अनेक मुनियों को, आर्यिकाओं को, अनेक शिष्य-शिष्याओं को पढ़ाये हैं। कई एक ग्रंथ तो मैंने पढ़ाकर ही पढ़ें हैं। धवला की सोलहों पुस्तकों का मैंने स्वयं स्वाध्याय किया है। डा. लाल बहादुर- बिना किसी से पढ़े आपने सभी ग्रंथों के अर्थ को कैसे समझ लिया? अष्टसहस्री ग्रंथ का, जैनेंद्र प्रक्रिया व्याकरण का आपने बिना किसी से पढ़े ही सुंदर हिंदी अनुवाद कर दिया। यह सब कैसे संभव हुआ है? माताजी कई एक ग्रथों को पढ़ते समय मुझे ऐसा लगता कि मानों इसे मैंने पहले कभी पढ़ा है। इन बातों से क्षु. विशालमती जी कहा करती थीं कि तुमने पूर्वजन्म में ये सब ग्रंथ व्याकरण आदि भी पढ़े हैं ऐसा लगता है। मुझे ऐसी प्रतीति होती रही है कि पूर्वजन्म के संस्कारों से ही मुझे अनेक ग्रंथों को पढ़ते समय अर्थ प्रतिभास स्पष्ट हो जाता था । उदाहरण के लिये- सन् ५५ के चातुर्मास में मैंने "चारित्रसार" ग्रंथ का स्वाध्याय किया उसमें लिखित सामायिक-देववंदना की विधि को हृदयंगम कर मैं मंदिर में विधिवत् सामायिक करने लगी। सन् १९५८ में ब्यावर चातुर्मास में जब पं. पन्नालाल जी सोनी ने मेरी यह सामायिक विधि देखी तब वे प्रसन्न होकर पूछने लगे-माताजी! आपने यह विधि कैसे सीखी? मैंने चारित्रसार ग्रंथ का प्रकरण दिखा दिया। तभी वे "क्रियाकलाप" ग्रंथ लाये। उसमें उन्होंने हस्तलिखित क्रियाकलाप गुटका व अनगारधर्मामृत के आधार से देववंदना विधि आदि छपाई हुई थी। मुझे भी यह सब देखकर प्रसन्नता हुई कि मेरी क्रियायें सभी आगमोक्त हैं। इत्यादि। डा. श्रेयांस प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास ये तीन चीजें काव्य के लिये प्रमुख कारण हैं। प्रतिभा आपको जन्म से प्राप्त है किंतु व्युत्पत्ति और अभ्यास में आपके क्या प्रयत्न रहे? माताजी व्युत्पत्ति के लिये मैंने कातंत्र व्याकरण के साथ ही जैनेंद्र व्याकरण एवं छंदशास्त्रों का भी अध्ययन किया । एवं संघ में मुनियों को आर्यिकाओं आदि को अध्ययन कराया। अभ्यास में स्वयं रचनायें बनाई--- | डा. श्रेयांस व्याकरण जैसे नीरस विषय में आपने प्रवीणता कैसे प्राप्त की? माताजी मैंने सर्वप्रथम कातंत्र व्याकरण पढ़ी है पुनः अनेक साधुओं को पढ़ाई है। यह बहुत ही सरल है। लोग व्याकरण को "लोहे के चने चबाना" कहते हैं परंतु मुझे इससे विपरीत बहुत ही सरस लगती थी और पढ़ाने में भी आंनद आता था। पश्चात् मैंने जैनेंद्र प्रक्रिया को संघ में पढ़ाया है। इसका भी मैंने हिंदी अनुवाद सन् ७५ में किया था। दैवयोग से कुछ प्रकरण का अनुवाद रह गया था सो वह अपूर्ण ही है। मैंने श्री पूज्यपाद स्वामी के जैनेंद्र व्याकरण पर जो श्रीसोमदेव सूरि द्वारा शब्दार्णव चन्द्रिका है उसे भी पढ़ाया है। इसी व्याकरण का "जैनेन्द्रमहावृत्ति" नामक महाभाष्य भी छप चुका है। उसका कुछ अध्ययन मैंने कराया है। मुझे ये व्याकरण शास्त्र कभी नीरस नहीं प्रतीत हुये थे। डा. श्रेयांस कातंत्र व्याकरण जैनाचार्य विरचित है और जैनेंद्रव्याकरण भी। आपने इन्हीं जैन व्याकरण को ही पढ़ा-पढ़ाया है ऐसा क्यों? हम सभी विद्वानों ने तो पाणिनी व्याकरण ही पढ़ी है। माताजी व्याकरण के नियमों में कोई अंतर नहीं है फिर भी जैन व्याकरण में कई एक नियम बहुत ही विशेष हैं जो कि स्याद्वाद और जैनसिद्धांत को पुष्ट करते हैं। उनके कुछ उदाहरण देखिये-कातंत्र व्याकरण का पहला सूत्र है "सिद्धो वर्णसमाम्नायः" वर्गों का समुदाय अन्मदिकाल से सिद्ध है। इसमें "सिद्ध" पद से सिद्धभगवान" का नामस्मरण रूप नमस्कार भी हो गया है। ऐसे ही इसमें एक सूत्र है “वा विरामे" पद के अंत में मकार को अनुस्वार विकल्प से होता है। यह नियम अन्य पाणिनीय आदि व्याकरणों में नहीं है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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