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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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बचपन से ही संघर्षशील माताजी
-कैलाशचन्द्र जैन सर्राफ, टिकैतनगर महामंत्री : भा०दि० जैन महासभा, उत्तर प्रदेश
पूज्या श्री ज्ञानमती माताजी बचपन से ही, जब गृहस्थावस्था में मैना के रूप में थीं, तभी उनमें एक विशेषता थी कि जिस कार्य को करने का निश्चय कर लेती थीं उस कार्य के प्रति दृढ़ प्रतिज्ञ रहती थीं। चाहे वह कार्य रूढ़िवादिता के विरुद्ध संघर्ष का हो या स्वयं के आत्म-कल्याण का। एक बार सोचे गये कार्य के प्रति उसके अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति तक पुरुषार्थ में कभी भी कमी नहीं आने देना इनकी विशेष बात थी।
जब हमारे छोटे भाई प्रकाश एवं सुभाष चेचक की बीमारी से बुरी तरह पीड़ित हो गये थे, उन दिनों नगर ही नहीं, बल्कि आस-पास के गाँवों में भी चेचक एक भयंकर रूप ले रही थी। दोनों भाई रूई के फाहे में उठाये-बिठाये जाते थे, अत्यन्त नाजुक स्थिति थी, रूढ़िवाद अज्ञानता भी अपनी चरम सीमा पर था। कोई इलाज करना, देवी-देवताओं के प्रति अनास्था-अनादर माना जाता है। बल्कि देवी-देवताओं की अवज्ञा न हो, घर में न तो कपड़े धुलाये जाते थे, न ही दवा के लिए किसी को डॉक्टर को दिखाया जाता था। उस समय बड़ी ही विकट परिस्थिति थी। हमारी दादी एवं नगर की हर एक बड़ी-बूढ़ी उसे देवीजी के प्रकट होने का रूप मानती थी।
उस समय मैना की उम्र लगभग १२ वर्ष की थी और उन्होंने माँ से सलाह करके सदियों से चली आ रही अज्ञानता, रूढ़िवादिता एवं कुदेवपूजन को समाप्त करने का निर्णय कर लिया था। वह निर्णय अत्यन्त नाजुक स्थिति में लिया गया, साहसिक कदम था। एक ओर दोनों भाई कराह रहे थे, प्रतिक्षण क्षीण होती हुई हालत और दूसरी ओर लोकमूढ़ता से संघर्ष । सभी लोगों का कहना था कि इस लड़की को देवीजी के प्रति अवज्ञा से दोनों बच्चों का जीवन अब सुरक्षित नहीं रह गया है, किन्तु किसी की भी परवाह न करके प्रतिदिन देवशास्त्र-गुरु की पूजन करना और गंधोदक धुले साफ बिस्तर और वस्त्र बदलवाकर छिड़कना, योग्य दवा देना तथा प्रतिक्षण उपचार के प्रति सजग रहना यही उनकी दिनचर्या का प्रमुख कार्य था। जब शनैः शनैः चेचक का प्रकोप कम होने लगा स्वयं बच्चे उठने-बैठने की स्थिति में होने लगे तब उन्हीं ने मैना- जो आज पू० गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी हैं, जो सदियों से चले आ रहे देवमूढ़ता और लोकमूढ़ता के अंधविश्वास में डूबे थे, मैना के कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे और एक दिन आ ही गया जब दोनों भाई की स्वस्थता के साथ ही नगर के समाज से सदा के लिए इस मिथ्यात्व का पलायन हो गया। इसी तरह अनेक कार्य बड़े ही साहसिक किये। जो महापुरुष होते हैं वह स्वयं मार्ग का निर्माण कर लेते हैं, यह उन्हीं लोगों में से एक हैं।
जब १७-१८ वर्ष की उम्र में शादी के लिए पिताजी ने सगाई की रस्म पूरी कर दी थी और मैना ने आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत लेकर तपश्चर्या करने का अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया था। फिर उस निश्चय और आने वाले समय में कितना संघर्ष हुआ और उन सब में वह किस प्रकार खरी उतरीं यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण है। पूज्य पिताजी मोह से इतना पागल हो रहे थे कि आचार्य देशभूषणजी महाराज को दीक्षा न देने के लिए किन-किन शब्दों में कहा। पूज्य ताऊजी, मामाजी ने मैनाजी को केशलोंच करते हुए बीच में ही बाराबंकी में जन-समुदाय के मध्य ही हाथ पकड़कर रोका और कितना वाद-विवाद किया। छोटे-छोटे भाई-बहिन तथा स्वयं मेरे मोह, जिसे कि बचपन में अपने हाथों से नहलाती-धुलाती थीं, हमेशापाठशाला की पढ़ाई में मेरा ध्यान रखती थीं तथा सदैव ही मैं उनसे अपने मन की बात कहता था और मुझसे अत्यन्त स्नेह करने वाली मेरी बड़ी बहिन कु० मैना देवी मेरी भी किंचित् परवाह न करते हुए मोह के बन्धन से मुक्त होने में तत्पर परिवार एवं समाज से कठोर संघर्ष, वाद-विवाद, उत्तर-प्रत्युत्तर करती हुई अन्ततः विजयी हुई और उसी प्रशस्त मार्ग पर चल पड़ी, जिसे महापुरुषों ने अपने पुरुषार्थ के लिए युगों पूर्व अपनाया था।
पू० माताजी ने जिस कार्य को धर्मानुकूल समझा और देखा कि इसमें मेरी तथा अन्य की भलाई है, जो प्रशस्त है, करने योग्य है फिर उस कार्य को करने का बीड़ा उठाया। फिर चाहे वह सम्यग्ज्ञान लेखनी का हो, चाहे वह जम्बूद्वीप निर्माण का हो, चाहे जो भी हो, माताजी कुछेक लोगों के अज्ञान, अविवेक और एकान्तवाद से प्रेरित बहुजन के आगे सदैव संघर्षरत रहीं। और उसी का परिणाम है- निरन्तर निकलने वाली अविरल रूप से प्रवाहित ज्ञान गंगा सम्यग्ज्ञान । समय-समय पर ज्ञानवर्द्धन एवं सुषुप्त ज्ञान को जगाने हेतु शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर । देश-विदेश के बुद्धिजीवियों को चकित करने वाली भौगोलिक रचना जम्बूद्वीप।
पूज्या माताजी ने लम्बी बीमारी के समय भी संयम में सदैव सावधानी रखी है और उसी से प्रेरित होकर वैद्य-राजवैद्य माताजी के संयम की प्रशंसा करते नहीं अघाते हैं।
हमारा तो दृढ़ विश्वास है कि पू० माताजी का जब तक सानिध्य प्राप्त होता रहेगा। समाज-देश का कल्याण होता रहेगा। ऐसी विदुषी माताजी शतायु हों। यही मेरी वीर प्रभु से मंगलकामना है।
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