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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४६९ इस विधान में सबसे पहले जम्बूद्वीप भक्ति है, उसके बाद रक्षाविधि में जंबूद्वीप के रक्षक अनावृत यक्ष का आह्वान कर उन्हें यज्ञ भाग दिया गया है। ऐसे ही चार गोपुर द्वार के देवों को व श्री ह्री आदि छह देवियों का आह्वान करके उन्हें भी यज्ञार्थ अर्पित किया है। पूजन के प्रारंभ में जम्बूद्वीप की समुच्चय पूजा है। इसके आगे सबसे पहले जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखंड में होने वाली तीस चौबीसी की तीन पूजायें हैं। फिर वहीं हुए अनंत चौबीसी केवली गणधर, मुनिगण तथा वर्तमान काल के गणधर, तीर्थक्षेत्र और भावी चौबीसी की एक पूजा व कई अर्घ्य हैं। इसके बाद जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंड में होने वाली तीस चौबीसी की तीन पूजाएं और वहाँ के आर्यखण्ड के भूत व भविष्यत् काल की अनन्त चौबीसी तथा गणधर, मुनिगण आदि की पूजा व अर्ध्य हैं। तदनन्तर विदेहक्षेत्र के विद्यमान सीमंधरादि चार तीर्थंकरों की पूजा, बत्तीस विदेहों के तीर्थंकर, केवली साधुपूजा के अर्घ्य, फिर चौंतीस कर्मभूमि में होने वाले जिनागम में बारह अंग, बारहवें अंग के पांच भेद-प्रभेदों के अर्घ्य चौदह प्रकीर्णकों के अर्घ्य हैं। उसके बाद जंबूद्वीप के अकृत्रिम अठत्तर जिनमंदिरों की पूजा में सबसे पहले सुदर्शन मेरु की पूजा में १६ चैत्यालय की पांडुक आदि शिलाओं के अर्घ्य हैं। इसी तरह षट् कुलाचल चार गजदंतों जंबू व शाल्मली वृक्षों की पूजा, सोलह वक्षारों तथा चौंतीस विजयाओं की पूजा व अर्घ्य हैं। इसमें छह पूजाओं में अठत्तर अर्घ्य हैं। इसके बाद हिमवान् पर्वत आदि के देव भवनों के गृह चैत्यालयों की एक पूजा में १७५ अर्घ्य हैं। इसके बाद नंदनवन के देव भवनों के चैत्यालयों, चौंतीस कर्मभूमियों के अकृत्रिम जिन मंदिरों की जिन प्रतिमा की एक पूजा व कई अर्घ्य हैं। बाद में समवसरण की एक पूजा वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों के समवसरण के १०१ अर्घ्य हैं। अंत में सिद्ध पूजा तथा जंबूद्वीप से मुक्ति प्राप्त सिद्धों को अर्घ्य हैं, उसके पश्चात् एक समुच्चयात्मक बड़ी जयमाला है। अंत में प्रशस्ति तथा भजन व आरती के साथ यह ग्रंथ ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी वीर निर्वाण सं. २५१२ ई. सन् १९८६ को पूर्ण होता है। जिसमें गत १०-१२ वर्षों में पूज्य माताजी ने कई पूजा विधानों की रचना की, जिसमें सबसे पहला था इंद्रध्वज विधान, पूजन के माध्यम से उन्होंने सारे जिनागम का सार ही अपनी कृति में भर दिया है। पूजा की हर पंक्ति ही अध्यात्म के रस से सराबोर है। कुछ उदाहरण देखिए “परमानंद स्वरूप, परमज्योति परमात्मा । परमदिगंबर रूप, पुष्पांजलि अर्पण करूँ। आत्मा निश्चय से शुद्ध कहा, फिर भी अशुद्ध संसारी है। व्यवहार नयाश्रित ही कर्मों का कर्ता है भवहारी है। कवयित्री की इस अमरकृति में शंभु, दोहा, अनुष्टुप, सोरठा, अडिल्ल, अनंगशेखर, नरेन्द्र, पृथ्वी, घत्ता, चौबोल, भुजंगप्रयात, चौपाई, पद्धड़ी, वसंततिलका, पंचचामर, वीर, तोटक, त्रिभंगी, चाल आदि विभिन्न छंदों में इस कृति की रचना की है। छंद और अलंकारों की दृष्टि से हर पूजा सहज और सरस है, अनुप्रास की एक छटा देखिए। जय जय जिनेश्वर तीर्थंकर, जय केवली जिन साधुवर । जय जय गणीश्वर ऋद्धि धरा श्रुतकेवली श्रुतज्ञानधर ॥ चार चतुष्टय के धनी, नमूं चार तीर्थेश। चारों गति के नाशने, चउ आराधन हेत ।। इस विधान के करने से भौगोलिक ज्ञान के साथ-साथ अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन का आनंद भी सहज प्राप्त हो जाता है। यह सारे मनोरथों को पूर्ण करने वाला, समस्त अमंगलों को नष्ट करने वाला, सारी आपत्तियों को दूर करके परम सुख का देने वाला है। माताजी की सभी रचनाएं आर्षमार्गिक होते हुए भी पूर्वाचार्यों की पद्धति के अनुरूप ही हैं, यह रचना तो भक्तों को सम्यक्त्व प्राप्त कराने में परम कारण है। ग्रंथ की छपाई आदि भी उत्तम है, मुख्य पृष्ठ सजिल्द होने से पुस्तक की उम्र बढ़ जाती है। इसका ध्यान रखते हुए इस ग्रंथ को सजिल्द मुख पत्र के रूप में छापा गया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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