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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
सर्प भी आया स्वागत करनेसायं भोजन तथा सामायिक से निवृत्त होकर आगे घुवारा के लिए प्रस्थान हुआ। कई बार ज्ञानज्योति संचालक विद्वानों के मुँह से मैंने सुना था कि इस ज्ञानरथ का स्वागत केवल मनुष्य ही नहीं, पशु भी करते हैं। यहाँ पर दृष्टिगोचर भी हुआ कि घुवारा शहर के अंदर प्रवेश करने से पूर्व २ मीटर लम्बे कृष्ण वर्ण के सर्पराज ने अपना फण फैलाकर स्वागत किया। हम सभी ने अपनी आँखों से इस दृश्य को देखा। लगभग २ मिनट के बाद सर्प झाड़ी में प्रविष्ट हो गया और ज्ञानज्योति अपने गन्तव्य की ओर चल दी। घुवारा में मेन बाजार में प्रोग्राम हुआ। यहाँ के एक कविराज महोदय ने कविता के माध्यम से सबका स्वागत किया। शांतिनाथ दिगंबर जैन विद्यालय की बालिकाओं ने स्वागत गीत प्रस्तुत किया। सभी विद्वानों के समयोचित भाषण हुए, बोलियाँ हुईं और रात्रि में १२ बजे तक जुलूस निकाला गया। जो कि उस नगर के लिए अविस्मरणीय दृश्य था। जगह-जगह बिजली और स्वागत वैनर्स के द्वारा पूरे नगर को सजाया गया था। रात्रि विश्राम यहीं हुआ।
२४ मार्च, १९८४ प्रातः ७ बजे घुवारा से स्नान पूजन आदि से निवृत्त होकर आगे बड़ा गाँव आए। यहाँ की जैन समाज काफी उत्साही है। २ कि.मी. दूर जाकर ज्ञानज्योति रथ का स्वागत किया और नगर पदार्पण में अनेक तोरणद्वार लगाकर शोभा बढ़ाई। बड़ागाँव के युवा वर्ग उत्साही कार्यकर्ता हैं। यहाँ एक छोटी-सी पहाड़ी पर ही २ मंदिर हैं। यह एक नवीन अतिशय क्षेत्र के रूप में प्रकाश में आया है। पहाड़ी पर ही एक प्राचीन गुफा भी है, जहाँ चरण स्थापित हैं, जिसकी खुदाई का कार्य भी चल रहा था। संभव है कि कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के बारे में जानकारी प्राप्त हुई होगी। इस पहाड़ी से ही सामने की ओर एक पर्वत दिखता है, जिसके बारे में यहाँ के लोगों ने बताया कि यह शास्त्रों में वर्णित कोटिशिला नाम का पर्वत है। जिसके बारे में हम निर्वाणकांड में पढ़ते हैं-"कोटिशिला मुनि कोटि प्रमान, वंदन करूँ जोड़ जुगपान ।" शायद इस कोटिशिला पर से एक करोड़ मुनिराजों ने मोक्ष प्राप्त किया, इसीलिए इसे कोटिशिला के नाम से जाना जाता है। फिलहाल यह शोधकर्ताओं की खोज का विषय है। इस बड़ागाँव में बाजार में पंडाल बनाकर ज्ञानज्योति का कार्यक्रम हुआ। लोगों के उत्साह के अनुसार अच्छी बोलियाँ हुईं और कालेज के प्राचार्य महोदय की अध्यक्षता में आयोजन सफल हुआ। उन्होंने भी अपने अध्यक्षीय भाषण में जम्बूद्वीप और आधुनिक भूगोल पर अच्छा प्रकाश डाला । परम पू. आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित साहित्य का भी बहुमात्रा में लोगों ने लाभ उठाया। जैन अजैन सभी लोगों ने ज्ञानज्योति रथ पर माल्यार्पण करके पुण्य लाभ लिया।
मध्याह्न २ बजे सामायिक से निवृत्त होकर समर्रा आए। यहाँ एक जैन मंदिर है। हमने पं. सुधर्मचंदजी और हमारे साथ सोनागिरी से आई हुई सागर की ब्र. कु. सविता आदि सभी ने इसी मंदिर में प्रतिक्रमण किया। यहाँ १०-१२ जैन घर हैं। लोगों में उत्साह अच्छा रहा। सबने ज्ञानज्योति का माल्यार्पण द्वारा स्वागत किया और सायंकाल सामायिक के अनंतर हम सभी ज्ञानज्योति के साथ रात्रि ८ बजे पठा आ गए। यहाँ दो जैन मंदिर हैं, लेकिन जीर्णशीर्ण हालत में हैं, जिनकी सुरक्षा के विषय में हमने व पं. जी ने अपने वक्तव्य में प्रकाश डाला। जैन समाज के ८-१० घर हैं। सड़क पर ही सार्वजनिक सभा हुई, जिसमें अजैन जनता ने अधिक मात्रा में लाभ लिया। ज्ञानज्योति के साथ चल रहे समस्त विद्वानों के विचार सुने । जबलपुर दि. जैन पंचायत के महामंत्री श्री भूरमलजी ने पू. आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अच्छा प्रकाश डाला। सभी लोगों ने ज्योति के ऊपर माल्यार्पण करके स्वागत किया। यहाँ पर एक सज्जन श्री शीलचंदजी से भेंट हुई, जो कि पूर्व में डा. भागचंद भागेन्दु के साथ हस्तिनापुर पधारे थे, जो माताजी और हम लोगों से परिचित थे, उन्होंने मुझे आहारजी क्षेत्र के दर्शनों के लिए आग्रह किया, जिसके फलस्वरूप मुझे ज्ञानज्योति के साथ ही २८ मार्च को आहारजी क्षेत्र के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दि. २४ मार्च की रात्रि में पठा का आयोजन होने के बाद रात्रि विश्राम यहाँ से १० कि.मी. दूर पपौराजी तीर्थक्षेत्र में हुआ। यहाँ पर मात्र एक मूल मंदिर के दर्शनों के पश्चात् हम सभी ने विश्राम किया। प्रातःकाल से यहाँ की क्रिया प्रारंभ होती है। २५ मार्च, १९८४, प्रातः ७ बजे भगवान आदिनाथ के मंदिर में हम लोगों ने अभिषेक पूजन किया। यह चैत्र वदी नवमी ऋषभ जयन्ती का पुण्य दिवस था। संयोगवश तीर्थक्षेत्र और ऋषभदेव के चरणसानिध्य में ही यह जन्मोत्सव मनाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पूजन के अनंतर ज्ञानज्योति के साथ आए हुए समस्त लोगों ने, पुलिस विभाग वालों ने भी हम लोगों के साथ सारे मंदिरों की वंदना की। यहाँ एक ही विशाल परकोटे के अंदर ७६ मंदिर हैं, ११० वेदियाँ हैं, जिनके दर्शनों में लगभग २ घंटे का समय अवश्य लगता है। भगवान् बाहुबली का एक विशाल मंदिर है, जिसके चारों तरफ चौबीसी प्रतिमाओं की वेदियाँ हैं। यहाँ विशेष बात यह है कि तीर्थक्षेत्र के मुख्य दरवाजे पर एक रथ मंदिर है, जो कि बिल्कुल रथ के आकार का बना हुआ सुन्दर वाहन से युक्त प्रतीत होता है। यहाँ मेरु के आकार वाले भी त्रयप्रदक्षिणा युक्त ३-४ मंदिर हैं, जिनमें मूल शिखर पर ही एक-एक प्रतिमाएं विराजमान हैं, हाँ, इनमें कल्पना अवश्य मेरुपर्वत को ही लेकर मंदिर रचना की गई होगी। विभिन्न डिजाइन व आकार में से इन मंदिरों में से अधिकांश के मूल दरवाजे बहुत ही छोटे बने हुए हैं। जैसा कि शायद बुंदेलखंड के तीर्थों में छोटे दरवाजे वाले ही मंदिर होते थे। मन्तव्य ज्ञात करने पर पता लगा कि लोगों को झुककर मंदिर में प्रवेश करना चाहिए। आधुनिक सभ्यता के अनुसार बड़े दरवाजे ही मंदिर और मकानों में बनाने की परंपरा है। अतः लोगों को असुविधा के साथ-साथ चोट लगने की भी संभावनाएं रहती हैं। मुझे भी कई जगह सिर में चोटें आईं, किन्तु ईश्वर की कृपा से कहीं जोर की चोट नहीं आई।
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