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________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला वीरज्ञानोदय ग्रन्थमाला हस्तिनापुर से प्रकाशित एवं पूज्यगणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा प्रणीत ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुति–पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागरजी अष्टसहस्त्री प्रथम भाग:- जैन न्यायदर्शन का अतिप्राचीन ग्रंथ है। सर्वप्रथम उमास्वामी के मंगलाचरण पर टीका रूप में आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने ११४ कारिकायें लिखकर "आप्त मीमांसा" नाम से रचना की। इन्हीं कारिकाओं पर आचार्य अकलंकदेव ने अष्टशती नाम से टीका लिखी। पुनः कारिकाओं एवं अष्टशती को लेकर अब से १२०० वर्ष पूर्व आचार्य विद्यानंद स्वामी ने अष्टसहस्री नाम से विस्तृत टीका का निर्माण किया तथा स्वयं आचार्य महोदय ने उसे कष्टसहस्री नाम दिया। पूज्य माताजी ने इस ग्रंथ की हिन्दी टीका करके जन-जन के लिए सुगम सहस्री बना दिया। इस प्रथम भाग में ६ कारिकाओं की टीका हुई है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन सन् १९७४ में । पृष्ठ संख्या ४५६ । मूल्य ५१/- रु० । इस प्रथम संस्करण में अंत में १२० पृष्ठीय न्यायसार ग्रंथ को भी जोड़ दिया गया है। द्वितीय संस्करण का प्रकाशन मार्च १९८९ में/पृष्ठ संख्या ४४४+७६/ मूल्य ६४/- रु० । जैन ज्योतिलोकः- पूज्य माताजी द्वारा सन् १९६९ में बक्सी चौक जयपुर में ज्योतिलोंक पर शिक्षण शिविर में दिये गये प्रवचनों के आधार पर इस पुस्तक का सृजन किया गया है। सूर्य, चन्द्र, तारा, नक्षत्र आदि के विषय में सरलतापूर्वक जानकारी देने वाली यह पुस्तक अति उपयोगी है। लेखक-मोतीचंद जैन सर्राफ/द्वितीय संस्करण फरवरी १९७३ में/पृष्ठ संख्या-८२+३६/ मूल्य १.५० रु०। त्रिलोक भास्करः- वैसे तो तीनलोक का विस्तृत वर्णन तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, लोक विभाग आदि अनेक ग्रंथों में पूर्वाचार्यों ने किया है, किन्तु सुगमता की दृष्टि से पूज्य माताजी ने सरल हिन्दी उन्हीं ग्रंथों का सार इसमें लिया है। यथा स्थान चार्ट एवं चित्रों को देकर इसे विशेष रूप से पठनीय बना दिया है। प्रथम संस्करण सन् १९७४ में, पृष्ठ संख्या २८०+४०, मूल्य १२/- रु०। ४. सामायिक (एवं श्रावक प्रतिक्रमण)- सामायिक पाठ अनेक प्रकार के प्रचलित हैं, इस पुस्तक में प्राचीन क्रियाकलाप ग्रंथ से प्राप्त सामायिक पाठ व उसका माताजी द्वारा अनुवादित हिन्दी पद्यानुवाद दिया गया है साथ ही श्रावक प्रतिक्रमण व उसका हिन्दी पद्यानुवाद भी दिया गया है। हिन्दी पद्यानुवाद हो जाने से साधुवर्ग एवं श्रावकों के लिए सामायिक पाठ सुरुचिकर हो गया है। इसी प्रकार से श्रावकों के लिए प्रतिक्रमण पाठ भी अच्छी तरह से समझ में आ जायेगा। प्रथम संस्करण का प्रकाशन सितंबर १९७२ में, पृष्ठ संख्या ७२+६०, मूल्य १.५० रु०। द्वितीय संस्करण अगस्त १९९१ में, पृष्ठ संख्या ९६+१६, मूल्य १२/- रु०।। न्यायसार- पूज्य माताजी की यह भौतिक कृति है। जैन न्यायदर्शन में प्रवेश करने के लिए यह कुंजी के समान है इसमें जैन न्यायदर्शन में प्रयुक्त होने वाले अनेक शब्दों की परिभाषाएं दी गई हैं। अनंतर अन्य दर्शनों की मान्यता को दर्शाते हुए वे असमीचीन क्यों हैं उसे दिया गया है। न्याय की शैली में उनका खण्डन किया गया है। इस ग्रंथ के निर्माण में माताजी ने बहुत परिश्रम किया है। प्रथम संस्करण सितम्बर १९७४ में, पृष्ठ संख्या १२०, मूल्य ७/- रु०।। भगवान् महावीर कैसे बने:- भगवान महावीर की जीवनी-पुरूरवा भील से महावीर बनने तक का विवरण संक्षेप में बहुत ही सुगम शैली में दिया गया है। भगवान महावीर के पच्चीस सौवें निर्वाण महोत्सव के पावन अवसर पर अक्टूबर सन् १९७४ में इस पुस्तक के प्रथम संस्करण का प्रकाशन किया गया। द्वितीय संस्करण नवम्बर १९७४ में, पृष्ठ संख्या ४०/- मूल्य २/- रु०। जम्बूद्वीप पूजन विधानः- अकृत्रिम जिन चैत्यालयों की भक्ति से सराबोर होकर जम्बूद्वीप रचना निर्माण कराने की अतिउत्कट भावना से पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर के प्राचीन शांतिनाथ जिनालय में भगवान के समक्ष बैठकर जीवन में पहली बार पूजन की रचना की। इसके बाद तो माताजी ने अनेकों पूजाएं व विधानों की रचना की। इस लघु विधान में जम्बूद्वीप के ७८ अकृत्रिम जिनचैत्यालयों के अतिरिक्त जम्बूद्वीप में स्थित समस्त देव भवनों में विराजमान अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की भी पूजा दी गई है। प्रथम संस्करण सितम्बर १९७४ में। पृष्ठ संख्या ६४ । मूल्य १.५० रु०। तीर्थकर महावीर और धर्मतीर्थः- भगवान महावीर के पच्चीस सौवें निर्वाण महोत्सव के पावन प्रसंग पर भगवान महावीर के जीवनचरित्र एवं जैन धर्म का जन-जन को परिचय प्रदान कराने के लिए यह छोटी-सी पुस्तक लिखी थी। बड़ी संख्या में इसका प्रकाशन हुआ। प्रथम संस्करण सितम्बर १९७४ में, पृष्ठ संख्या-१६, मूल्य ५० पैसे। श्री वीरजिन स्तुति- भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के पावन अवसर पर पूज्य माताजी द्वारा ३६ पद्यों में भगवान की गुणस्तुति रूप में लिखी गई भावांजलि, २८ पद्यों की जम्बूद्वीप स्तुति तथा ५ पद्यों की मंगल स्तुति इस लघुकाय पुस्तक में दी गई है। प्रथम संस्करण विजया दशमी-अक्टूबर १९७४, पृष्ठ संख्या ३२, मूल्य २५ पैसा । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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