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________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला मंगल आशीर्वाद - युगप्रमुख चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्रीशान्तिसागरजीमहाराजकीपरम्पराकेपंचमपट्टाचार्य श्री १०८ श्रेयांससागरजीमहाराज जैनजगत् की जानी-मानी गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी इस युग की सरस्वती माता तो हैं ही, वर्तमान में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज की निर्दोष परम्परा में वे सर्वाधिक प्राचीन दीक्षित वरिष्ठ आर्यिका भी हैं। जब सन् १९६५ में श्री महावीरजी में मैंने आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के संघ में मुनि दीक्षा ली उस समय ज्ञानमती माताजी अपने आर्यिका संघ के साथ दक्षिण भारत में विहार कर रही थीं, किन्तु संघ में प्रतिदिन मैं उनकी प्रशंसा मुनि श्री श्रुतसागरजी, अजितसागरजी आदि अनेक साधुओं के मुख से सुना करता था। मन में सोचा करता था कि क्या ऐसी लघुवयस्का बालब्रहमचारिणी आर्यिका में इतनी प्रतिभा-शक्ति हो सकती है ? किन्तु साक्षात् भेंट में पाया कुछ उससे भी अधिक। __सुबह से शाम तक अनुशासनबद्ध ढंग से शिष्यों को एवं साधुओं को अध्ययन कराना, समय पर प्रत्येक सामूहिक क्रिया में उपस्थित होना, सरस्वती की प्रतिमा के सदृश प्रत्येक संस्कृत, प्राकृत भक्तियों का मुखपाठ बोलना और समय मिलने पर शिष्यमंडली से प्रश्रोत्तर करती ज्ञानमतीजी तो सचमुच ही मुझे चलती-फिरती पाठशाला का रूप नजर आने लगीं। मैं भी उनके ज्ञान से प्रभावित हुए बिना न रह सका। उम्र में छोटी, किन्तु दीक्षा में वृद्धा सरीखी उन आर्यिका श्री के साथ मैंने भी कई ऊँचे-ऊँचे विषयों का स्वाध्याय किया। यद्यपि अधिक काल तक हम लोग एक साथ न रह सके, फिर भी उन बीते सुखद क्षणों के कई संस्मरण मुझे आज भी याद आते रहते हैं। सबसे बड़ी विशेषता तो मैंने उसमें देखी है-चारित्रिक दृढ़ता, आगम की कट्टरता एवं निष्पक्ष न्याय निर्णय की क्षमता। ___इन विषयों में भले ही उन्हें कितने ही संघर्ष क्यों न झेलने पड़े हों, फिर भी उनकी दृढ़ता ने सदैव विजयश्री प्राप्त करके दिखाया है। वास्तव में ऐसे-ऐसे शिष्यों से ही गुरुओं का यश दिग्दिगन्त तक व्याप्त होता है। आज हम अपने बीच ऐसी गणिनी आर्यिका श्री रूपी निधि को पाकर अत्यन्त गौरवान्वित हैं, जिसने मुनि परम्परा का पुनरुद्धार करने वाले आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के समान ही इस देश में कुमारी कन्याओं के लिए त्यागमार्ग प्रशस्त किया है। इनके विपुल साहित्यसृजन एवं जम्बूद्वीप जैसे अमिट कार्यकलापों ने ज्ञानमती इस नाम को अमरत्व प्रदान कर दिया है। भारत का जैन समाज एक अभिवन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर देने मात्र से उनके ऋण से उऋण नहीं हो सकता। यह तो मेरी दृष्टि में एक पत्रम् पुष्पम् जैसा लघु प्रयास है; जैसे- गंगा का जल उठाकर ही गंगा को अर्पण कर देने से गंगा में कोई परिवर्तन नहीं हो जाता, उसी प्रकार ज्ञानमतीजी के गुणों के द्वारा ही उनकी अभिवन्दना कर लेना एक औपचारिकतामात्र है। फिर भी आप लोगों का यह प्रयास प्रशंसनीय है; क्योंकि यह भी धर्म-प्रभावना का एक शुभ कार्य है। इस मांगलिक प्रसंग पर आर्यिका श्री के लिए मेरा यही मंगल आशीर्वाद है कि वे अपने रत्नत्रय एवं ज्ञान के द्वारा आगम एवं गुरु परंपरा को यावच्चन्द्रदिवाकरः तक पृथ्वी तल पर वृद्धिगत करती रहें तथा अपनी शिष्य परम्परा को भी इस योग्य बनाकर अपना नाम सदैव जीवन्त रखें। अभिवन्दन ग्रन्थ के प्रकाशक एवं सम्पादक इस ग्रन्थ को अभूतपूर्व एवं माताजी की गरिमा के अनुकूल सामग्री सहित प्रकाशित करें यही उन सबके लिए शुभाशीर्वाद है। सलुम्बर २६ जनवरी १९९२ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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